शुक्रवार, 15 जून 2018

भारत की आजादी में आर्यसमाज हरदोई का योगदान:-

आजादी के आन्दोलन में आर्यसमाज का अविस्मरणीय योगदान...रहा है-हमारा देश 15 अगस्त, 1947 को विगत सैकड़ों वर्षों की दासता के बाद स्वतन्त्र हुआ था। विदेशी दासता से मुक्ति से एक दिन पहले देश के एक तिहाई भाग से अधिक भाग को भारत से अलग कर दिया गया। जिन कारणों से भारत का विभाजन हुआ, उसके बाद भी प्रायः वैसी ही अनेक धार्मिक व सामाजिक समस्यायें आज भी विद्यमान हैं। आजादी से पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और इससे पूर्व हमें मुसलमानों की दासता और भीषण अत्याचार सहन करने पड़े थे। वैदिक व हिन्दू धर्म के धार्मिक अन्धविश्वासों व तदनुरूप सामाजिक व्यवस्था के कारण मुख्यतः यह पराधीनता व दुःख आये थे। मुसलमानों के देश के बड़े भूभाग पर आधिपत्य से पूर्व भारत में भारतीय आर्य-हिन्दू राजा राज्य करते थे। चाणक्य व विक्रमादित्य के काल में भारत संगठित था और इसकी सीमायें वर्तमान से भी अधिक दूरी तक फैलीं हुईं थीं। किसी समय में अफगानिस्तान, श्रीलंका, नेपाल व बर्मा या म्यमार आदि भी भारत के ही अंग हुआ करते थे। इन सब देशों में एक ही वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति हुआ करती थी। धार्मिक अन्धविश्वास, सामाजिक विषमता व विदेशी दासता का मुख्य कारण महाभारत का महायुद्ध और उसके प्रभाव से देश में अव्यवस्था का उत्पन्न होना था। महाभारत के युद्ध में बहुत से लोग मारे गये थे तथा जो बचे थे उन्हें आलस्यजनित अकर्मण्यता ने अपने नियंत्रण में ले लिया था। महाभारत काल तक व उसके बाद चाणक्य व विक्रमादित्य के काल तक सुदूर पूर्व का भारत वैदिक धर्म और संस्कृति की छत्रछाया में उन्नत व विकसित था। वैदिक धर्म का प्रादुर्भाव सृष्टि के आरम्भ काल, 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पूर्व हुआ था। तब से पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध तक विश्व में एक ही धर्म व एक ही संस्कृति थी जिसका आधार वेद, वैदिक ग्रन्थों सहित हमारे पारदृष्टा ऋषि-मुनियों के वचन व मान्यतायें होती थी।

देश की आजादी में प्रमुख योगदान महर्षि दयानन्द, उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज और इनके द्वारा किये गये धार्मिक और समाज सुधार के कार्यों को सर्वाधिक है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ही आजादी के प्रणेता थे। सन् 1874 में सत्यार्थ प्रकाश की रचना हुई। इसका संशोधित संस्करण सन् 1883 में तैयार हुआ। इस ग्रन्थ के आठवे समुल्लास में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर रहित, प्रजा पर माता, पिता के समान कृपा न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं होता। सम्पूर्ण भारत के साहित्य में स्वराज्य का सर्वोपरि उत्तम होना सबसे पहले सत्यार्थप्रकाश ने ही देशवासियों को बताया। महर्षि दयानन्द के आर्याभिविनय व संस्कृत वाक्य प्रबोध आदि ग्रन्थों के कुछ अन्य वाक्य भी इसी प्रकार से आजादी के आन्दोलन का मुख्य आधार कहे जा सकते हैं। स्वराज्य सर्वोपरि उत्तम होने का अर्थ है परराज्य या विदेशी राज्य निकृष्ट व बुरा होता है और इसका अनुभव अंग्रेजी राज्य और उससे पूर्व मुस्लिम राज्य में भारत के लोगों ने किया वा भोगा है जो कि इतिहास के पन्नों पर अंकित है। महर्षि दयानन्द जी की एक अन्य बहुत बड़ी देन है कि उन्होंने मत-मतान्तरों व धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया और वेद व वैदिक धर्म को सत्य की कसौटी पर सिद्ध पाया। उन्होंने इसी कारण वेदों का प्रचार किया और अन्य सभी मतों में विद्यमान असत्य व अविद्याजन्य विचार, मान्यताओं, सिद्धान्तों, आस्थाओं, कर्मकाण्डों, कुरीतियों आदि का दिग्दर्शन कराया और मनुष्य जाति की उन्नति के लिए उनका खण्डन किया। इससे यह सिद्ध हुआ कि विश्व में सुख व शान्ति धर्म व समाज संबंधी सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों के द्वारा और इसके पर्याय वैदिक धर्म की स्थापना से ही लाई जा सकती है।
देश में स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन चला। कुछ देशवासियों का विचार था कि आजादी अंहिसक आन्दोलन(नरम दल) से मिल सकती है और कुछ विद्वानों व चिन्तकों का विचार था कि क्रान्तिकारी कार्यों(गरम दल) को अंजाम देकर ही विदेशी हुकमरानों को देश को स्वतन्त्र करने के लिए बाध्य किया जा सकता है। दोनों ही आन्दोलन देश में चले। दोनों का अपना महत्व है। क्रान्तिकारियों को अधिक कुर्बानियां देनी पड़ी व असह्य कष्ट उठाने पड़े। क्रान्तिकारियों के कार्यों से अंग्रेज शासक अधिक विचलित, भयभीत व परेशान होते थे और उन्हें दण्ड के रूप में कठोर यातनायें व मृत्यु दण्ड आदि बहुत कड़े दण्ड देते थे। हमें लगता है कि केवल अहिंसात्मक आन्दोलन से ही अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए विवश नहीं किया जा सका था।
स्वातंत्र्य युद्ध के कुछ आंदोलनों का वर्णन करना आवश्यक समझता हूं-1757 से अंग्रेजी राज द्वारा जारी लूट तथा भारतीय किसानों, मजदूरों, कारीगरों की बर्बादी, धार्मिक, सामाजिक भेदभाव ने जिस गति से जोर पकड़ा उसी गति से देश के विभिन्न हिस्सो मे विद्रोंह की चिंगारियाँ भी फूटने लगीं, जो 1857 में जंग-ए-आजादी के महासंग्राम के रूप में फूट पड़ी। 1757 के बाद शुरू हुआ सन्यासी विद्रोह (1763-1800), मिदनापुर विद्रोह (1766-1767), रगंपुर व जोरहट विद्रोह (1769-1799), चिटगाँव का चकमा आदिवासी विद्रोह (1776-1789), पहाड़िया सिरदार विद्रोह (1778), रंगपुर किसान विद्रोह (1783), रेशम कारिगर विद्रोह (1770-1800), वीरभूमि विद्रोह (1788-1789), मिदनापुर आदिवासी विद्रोह (1799), विजयानगरम विद्रोह (1794), केरल में कोट्टायम विद्रोह (1787-1800), त्रावणकोर का बेलूथम्बी विद्रोह (1808-1809), वैल्लोर सिपाही विद्रोह (1806), कारीगरों का विद्रोह (1795-1805), सिलहट विद्रोह (1787-1799), खासी विद्रोह (1788), भिवानी विद्रोह (1789), पलामू विद्रोह (1800-02), बुंदेलखण्ड में मुखियाओं का विद्रोह (1808-12), कटक पुरी विद्रोह (1817-18), खानदेश, धार व मालवा भील विद्रोह (1817-31,1846 व 1852), छोटा नागपुर, पलामू चाईबासा कोल विद्रोह (1820-37), बंगाल आर्मी बैरकपुर में पलाटून विद्रोह (1824), गूजर विद्रोह (1824), भिवानी हिसार व रोहतक विद्रोह (1824-26), काल्पी विद्रोह (1824), वहाबी आंदोलन (1830-61), 24 परगंना में तीतू मीर आंदोलन (1831), मैसूर में किसान विद्रोह (1830-31), विशाखापट्टनम का किसान विद्रोह (1830-33), मुंडा विद्रोह (1834), कोल विद्रोह (1831-32) संबलपुर का गौंड विद्रोह (1833), सूरत का नमक आंदोलन (1844), नागपुर विद्रोह (1848), नगा आंदोलन (1849-78), हजारा में सय्यद का विद्रोह (1853), गुजरात का भील विद्रोह (1809-28), संथाल विद्रोह (1855-56) तक सिलसिला जारी रहा। 1857 का संघर्ष संयुक्त भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। नील विद्रोह (सन् 1850 से 1860 तक),कूका विद्रोह (सन् 1872),वासुदेव बलवंत फड़के के मुक्ति प्रयास (सन् 1875 से 1879),चाफेकर संघ (सन् 1897 के आसपास),बंग-भंग आंदोलन (सन् 1905),यूरोप में भारतीय क्रांतिकारियों के मुक्ति प्रयास (सन् 1905 के आसपास),अमेरिका तथा कनाडा में गदर पार्टी (प्रथम विश्वयुद्ध के आगे-पीछे),रासबिहारी बोस की क्रांति चेष्टा, हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ’ (सन् 1915 के आसपास), दक्षिण-पूर्व एशिया में आजाद हिंद आंदोलन,नौसैनिक विद्रोह (सन् 1946) आदि अनेक संघर्षों में से कुछ संघर्ष हैं
अतः क्रान्तिकारी आन्दोलन का अपना विशेष महत्व और योगदान है और इस आन्दोलन के सभी नेता व अनुयायी देशवासियों के पूज्य व आदर्श हैं।
देश को गुलामी से आजाद कराने वाले क्रान्तिकारियों को नमन् करता हूँ,और हृदय से उन सभी का आभार व्यक्त करता हूँ ।स्वतन्त्रता अान्दोलन में कई संगठनो ने महत्वपूर्ण योगदान दिया उन्हीं में से एक अमर नाम 'आर्यसमाज' का भी रहा हैं | वास्तव में 1875 से 1885 तक 10 वर्षों में स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य बैनर आर्यसमाज ही था,1885में अंग्रेजोंकी पहल पर अंग्रेज ह्यूम द्वारा कांग्रेस की स्थापना की गई।
आगे हम संक्षेप में केवल उन लोगो का वर्णन करेगें जिनके भीतर छिपी क्रान्तिकारी भावना स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज द्वारा वामन से विराट स्वरूप हुई |
स्वामी जी ने स्वयं व उनके शिष्यों स्वामी श्रध्दानन्द जी, महात्मा हंसराज जी, स्वामी सत्यदेव जी, स्वामी सोमदेव जी, परमानन्द जी आदि ने बढ़ चढ़ कर क्रान्ति में भाग लिया था | तथा साथ ही सैकड़ो युवको को अपने ओजस्वी भाषणों से उन्हें अंग्रेजो के खिलाफ उठ खड़े होने को प्रेरित किया था |
क्रान्तिकारी भगत सिँह के दादा सरदार अर्जुन सिँह और चाचा अजीत सिहँ स्वयं स्वामी दयानन्द जी के शिष्य थे | चाचा की प्रेरणा से ही भतीजा भगत सिहँ क्रान्तिकारी बना क्रान्तिकारियों के गुरू 'श्यामा जी कृष्ण वर्मा' को तो स्वयं महर्षि दयानन्द जी ने प्रेरित करके अंग्रेजों की राजधानी लंदन में जाकर क्रांन्ति फैलाने को भेजा था | जहाँ जाकर उन्होनें गोरो की नाक में दम कर दिया था |
महात्मा गाँधी जी को भी महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज प्रेरित गोखले जी, महादेव गोविन्द रानाडे तथा भाई परमानन्द जी ने आजादी के आन्दोलन के लिए ही प्रेरित किया था |
विनायक वीर सावरकर जी को श्यामा जी कृष्ण वर्मा ने प्रेरित किया था |
रामप्रसाद बिस्मिल तथा ठाकुर रोशन सिँह को स्वामी सोमदेव जी ने ही प्रेरणा दी थी |
इन्हीं दोनों आर्यसमाजी मित्रों ने ही अशफाक उल्ला खाँ को भी क्रांतिकारियो का सहयोगी बनने को उत्सुक किया था |
सुखदेव जी को स्वामी सत्यदेव जी ने एंव उधम सिँह को स्वामी श्रध्दानन्द जी ने तथा लाला लाजपत राय को महात्मा हंसराज जी और पं० गुरूदत्त विद्यार्थी ने देश की आन पर मर मिटने को तैयार किया था |*
सर वैलेण्डा इन शिरोल ने भारत का दौरा करने के पश्चात् अपनी पुस्तक अनरैस्ट इन इण्डिया में अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि.......
"आर्यसमाज ही एक ऐसी ताकत है जो अंग्रेजी साम्राज्य को नष्ट करने के लिए संघर्षशील है |"
क्रान्तिकारी लाला लाज पत राय तो आर्यसमाज को अपनी माता कहते थे वहीं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के अनुसार...
"संगठित कार्य, दृढ़ता, उत्साह और समन्वयत्मकता की दृष्टि से आर्यसमाज की क्षमता कोई समाज नहीं कर सकता |"
हरदोई जनपद आर्यसमाज के प्रमुख़ नाम जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजों का डट कर मुकाबला किया:-
1857 की क्रांति में:-
1-बिरवा पासी-संडीला
2-नरपतिसिंह जी -माधौगंज
3-गुलाब सिंह -बरुआ
4-बेनी सिंह-माधौगंज(नरपतिसिंह जी के सगे भाई)
5-बस्ती सिंह- माधौगंज
6-लखन सिंह-
7-बद्री ठाकुर-
8-लक्कड़ शाह-संडीला
9-गुलाब सिंह-सर्वराकार(बेरूआ स्टेट)
10- लियाकत अली जी-सांडी

11-मदारी पासी-

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1947 की क्राँति में
1-प0रघुनन्दनशर्माजीसुरसा1921असहयोग आंदोलन
2-जय देव कपूर जी-लाहौर बम कांड
3-शिव वर्मा जी- """"""""""""""""""""
4-काशीराम जी-दिल्ली षडयंत्र1930
5-रामसेवक मिश्र जी-1922असहयोग आंदोलन
6-सीताराम जी-1921असहयोग
7-हीरालाल आर्य जी-
8-बिहारीलाल आर्य जी-डोला पालकी आंदोलन
9-प0 शांतिस्वरूप जी(पूर्व में मुहम्मद अली कुरेशी)-1920 से आजादी तक जेल
10-ठा0 निरंजन देव सिंह जी-नीर बहर1921से आजादी तक जेल
11-प0 रामस्वरूप शुक्ल जी-पाली 1921
12-मोहनलाल वर्मा जी-
13-छेदालाल गुप्त जी-
14-मन्नालाल जी वैद्य-
15-प0 जगदीश प्रसाद मिश्र जी-मल्लावां
16-प0 चंद्रहास जी मिश्र जी-दुर्गागंज
17-रानी लक्ष्मी देवी जी-बेरुआ स्टेट-1930,41,42
18-रानी विद्यावती जी-बेरूआ स्टेट-(देवरानी-जेठानी)
19-प0 भगवानदीन मिश्र जी-मलिहामऊ
20-आर्य रामभरोसे जी-
21-दयानंद मिश्र जी-सुरसा-हैदराबाद आंदोलन

ओ३म्...!

कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ।