मंगलवार, 26 मई 2015

प्राचीन वर्ण-क्रम-मापन विज्ञान-

 प्राचीन वर्ण-क्रम-मापन विज्ञान-

(क) उस काल में ‘वर्णक्रम मापक’ जैसे जटिल (Sophisticated) यंत्र रहे हैं।
(ख) उनका उपयोग सूर्य के प्रकाश में अवस्थित वर्णों के विक्षेपण (dispersion) मापन में तथा ‘ज्योतिष-भौतिकी’ (Astrophysics) में जिस प्रकार आज नक्षत्रों (stars) का वार्णिक वर्गीकरण (spectral classification) करते हैं, उसी रूप में करते रहे हैं।
(ग)यंत्र में प्रयुक्त होने वाले मणियों एवं गवाक्षों (lenses: prisms and windows) के निमित्त उपयुक्त लौहों(materials) को बनाने की विधियों एवं गुणों को भी जानते रहे हैं।
‘प्राच्य संस्थान, बड़ोदरा’ (Oriental Institute, Varodara), बड़ोदा के पुस्तकालय में बोधानन्द की व्याख्या से युक्त महर्षि भरद्वाज द्वारा प्रणीत ‘अंशुबोधिनी’ 1 की प्राप्त पांडुलिपि (manuscript) के ‘विषय वस्तु’ (Text) में ‘घ्वान्त-प्रमापकऱ्यंत्र के नाम से संबोधित ‘वर्णक्रम मापक’ (Spectrometer / monochromator) का वर्णन है। तदुपरांत सूर्य के प्रकाश का मणि (prism) द्वारा विक्षेपित (dispersed) विभिन्न तम-किरणों (rays of various radiation) के विभिन्न ‘सांकतों’ (symbols) के संगत प्राचीन कोण की इकाई कक्ष्य (१ कक्ष्य = १०.४ रेडियन) में अभिव्यक्त कोण परिमाणों (सांकेत संख्या) को क्रम से गिनाते हुए वर्णित किया गया है।
प्रस्तुत समस्या के समाधान हेतु संभवत: भौतिकी के सिद्धांताधीन गणना से उपर्युक्त आँकड़े पुनरुत्पादित करने में हम समर्थ रहे हैं, जिस कारण निम्नांकित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं :
(१) वर्णक्रम मापी की विशिष्ट रूप से ऊर्ध्वाधर रचना अंतरिक्ष से आगत ध्वांत /तम (radiation) को ग्रहण कर सकने की आवश्यकता के अनुकूल है।
(२) भौतिकी सिद्धान्त की सहायता से आँकड़ों (data) के पुनरुत्पादित करने के लिये प्रस्तुत परिस्थिति में एक लिंट कांच (Flint glass) का ३०º आधार कोण वाला शंक्वाकार मणि (prism) जिसकी समतल सतह अंतरिक्ष से आपतित समानान्तर कृत (collimated) ध्वान्त किरणों के लम्बवत् हो। यह मणि संयोजन (prism setting) सभी तरंग दैर्ध्यवाली रश्मियों के लिये एक-कालिक (simultaniously) न्यूनतम विचलन (minimum deviation) किंवा सार्वत्रिक (universal) संयोजन के तुल्य है, जिसे प्रयुक्त किया है जो कि सर्वथा आधुनिकविज्ञान के लिये नये प्रकार का संयोजन विधान है।
(३) सूर्य प्रकाश के लगभग पूरे दृश्य परास (visible rang) में प्रसरित A से K तक की फ्राँउनहॉफर रेखाओं (Fraunhoffer lines) के तरंग दैर्ध्य एवं संगत ‘कक्षा’ इकाई में प्रदत्त ‘संकेत संख्या’ भली तरह से मेल खाती है।
(४) संकतों’ (symbols) की क्रमवार सूची, नक्षत्रों के आधुनिक ‘वार्णिक वर्गीकरण’ (spectroscopic classification) के समानान्तर ही परिलक्षित होती है।
इस अध्ययन क्रम से न केवल प्राचीन काल में ‘वर्णक्रम मापन विज्ञान’ (spectyroscopy) के अस्तित्व का ज्ञान होता है अपितु आधुनिक विज्ञान के ज्ञान की अभिवृद्धि में निमांकित बिन्दुओं पर योगदान प्राप्त हो सकता है।
आधुनिक भौतिकी में योगदान –
i. शंक्वाकार मणि (conical prism) से सभी तरंग दैर्ध्य की रश्मियों (rays of all wave lengths) को एक साथ न्यूनतम विचलन (minimum deviation) की स्थिति में समंजित किया जा सकता है।
ii. प्राचीन आँकड़ों के पुनरुत्पादित करने हेतु गणित के द्वारा विचलन एवं तरंग दैर्ध्य के मध्य एक सरल सूत्र प्राप्त हुवा है जिससे सीधे ही ज्ञात विचलन के आधार पर तरंग दैर्ध्य की गणना की जा सकती है।
iii. अवरक्त किरणों (Infrared rays) के लिये एक पारदर्शी विशिष्ट कांच “प्रकाश स्तंभनाभिद लौह” की खोज हुयी है जो कि पूर्णरूप से आद्रता से अप्रभावी है। आधुनिक विज्ञान में अभी तक ज्ञात नहीं है। यह कांच ईस्वी सन् १९९८ में राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला, जमशेदपुर में निर्मित की जा चुकी है।
वर्णक्र्रम मापक /’ध्वान्त प्रमापक यंत्र’ (Spectrometer) 2
प्राच्य संस्थान, बडोदरा (Oriental Institute, Vadodara) के पुस्तकालय से बोधानन्द की टीका के साथ ‘अंशुबोधिनी’ शीर्षक की महर्षि भरद्वाज रचित एक पांडुलिपि प्राप्त हुयी है। वास्तव में प्राप्त पांडुलिपि भरद्वाज के १२ अध्याय वाले ग्रंथ में से केवल पहला अध्याय है। जिसका शीर्षक “सृष्ट्याधिकार” (Evolution of Universe) है जिसमें महाविस्फोट (Big-bang) से अपने सौर मंडल के सूर्य की उत्पत्ति तक का वर्णन किया गया है, जिसमें उपर्युक्त यंत्र जो कि संभवत: उस समय प्रचलित पाँच प्रकार के वर्णक्रम मापक यंत्रों में से एक है जिसे “तम” व्यापक अर्थ में (radiation) के तीन प्रकाशकीय परास (Optical region) अर्थात् अंधतम/पराबैंगनी, गूढ़तम/दृश्य एवं तम (ultraviolet, visible and infrared regions) के मापन में प्रयुक्त होता रहा है।
चितिचैत्यस्पन्दनेन सृष्टयाद्यतेकमेवहि।
तम: प्रादुरभूद्वेगात्तम स्पृष्टवैवकेवलम्।।
तमेवमूलप्रकृतिरित्यार्हुज्ञानवित्तमा:।
तम आसीदितिप्राहतमेवहिसनातनी।।
पश्चात्तस्मिन्चितप्रकाशस्स्वभावात्प्रतिबिंबित :।
तत्सानिध्यबलातन्मूलप्रकृत्यामतिवेगत:।।
अन्धंतमोगूढंतमस्तमश्चेतियथाक्रमम्।
तमांसित्रीण्यजायन्तचित्प्रभामिश्रितानिहि।।
त्रिगुणाइतितान्येवप्रवदन्तिमनीषिण:।
सत्वंरजस्तमइतिगुणा: प्रकृतिसंभव:।।
पृष्ठ ८५, अंशुबोधिनी
अर्थात् तम/विकीरण (radiation) के लिये ध्वान्त कारण (instrumental reason) है। व्यापक अर्थ में तम आवरण (संभवत: positron) ‘कंचुक-आवरण’ (electron) की चित् (दनबसमंत बवतम) की उपस्थिति के कारण अत्यंत वेग (force) से भ्रमण करने लगती है, जिससे तीन प्रकार के ‘तम व कंचुक-आवरण के मिश्रण से त्रिगुण (तम, सत्त्व, रज) उत्त्पन्न होते हैं। जिन्हें हम क्रमश: अंधतम, गूढ़तम एवं तम (Ultraviolet, Visible, infrared) कहते हैं।
तेषुशारिकनाथोक्तध्वान्तविज्ञानभास्करे।
तमप्रमापकविधौसन्ति शास्त्राणिपंचधा।।
तदेवात्रसमासेनयथाशास्त्रंनिरूप्यते।
तमप्रमापकविधिर्यथोक्तंस्वानुभूतित:।।
ध्वान्तप्रमापकंयन्त्रंनवोत्तरशतात्मकम्।
शारिकानाथ: –
उक्तंहियन्त्रसर्वस्वेभरद्वाजेनधीमता।
द्वात्रिंशदंगसंयुक्तंतमोभेदप्रदर्शकम्।।
तस्मादत्रसमासेन तदंगंप्रविविच्यते।
तस्यत्रयोदशांगेनप्रमातुंतमसोभवेत्।।
शारिकनाथ के “ध्वान्त विज्ञान भास्कर” नामक ग्रन्थ में उल्लेख है कि भरद्वाज के ग्रंथ “यंत्र सर्वस्य” में १०९ वे यंत्र के रूप में “ध्वान्त प्रमापक यंत्र”, जो कि ३२ यंत्रांगो (ancillary components) से बना है, व्यापक रूप से ‘ध्वांत’ का विवेचन करने में समर्थ है। तथापि शारिकनाथ के अनुसार ‘तम’ (radiation) विवेचन के लिये १३ यंत्रांग ही पर्याप्त हैं, अत: हम उन्हीं पर विचार करेंगे।
ध्वान्त प्रमापक यंत्र (spectrometer) के तेरह यंत्रांगों के विवरण:
यंत्रांग १ एवं २
यंत्रस्थद्वादशांगस्यपूर्वभागेस्थितेक्रमात्।
चतुस्श्रेयथाशास्त्रंवर्तुलंभारवर्जितम्।
वितसस्तिदशकायामंसुदृढंचसुसूक्ष्मकम्।।
छायापकर्षणादर्शषडुत्तरशतात्मकम्।
शास्त्रोक्तविधिनासम्यक्स्थापयेत्सुदृढंत्तथा।।
पश्चाच्छायापकर्षणदर्पणे शास्त्र:क्रमात् –
शंकुस्थानाद्दक्षवामपार्श्वयोरुभयोरपि।
त्रिंशत्त्रिंशल्लिखेद्रेखादर्पणान्तावधिक्रमात्।।
अह:प्रमाणघटिकान्दक्षरेखास्तयो:क्रमात्।
रात्रिप्रमाणघटिकान्वामरेखस्तस्थैवहि।।
प्रदर्शयन्तिसंख्यात:तथाविघटिकान्क्रमात्।
तेषुदर्शयितुंरेखाश्चतुष्षष्ठिर्विलेखयेत्।।
सर्वत्र रेखान्त्यभागेबिन्दुनेकसमन्वितान्।
स्फुटंविलेखयेत्तद्वत्तदन्तस्सूक्ष्मतस्तथा।।
सर्वप्रथम प्रथम यंत्राग के रूप में उपयुक्त दृढता के १२० x १२० अंगुल के चतुश्रेय/वर्गाकार आधार पर अन्य बचे हुये १२ यंत्रागों में से दूसरे यंत्रांग के रूप में दर्पण योग्य (छायापकर्षणादर्श) कांचों में क्रमांक १०६ वाले पतले काँच का १२० अंगुल व्यास का चक्र दृढ़ता के साथ जमाया जाय। तदनंतर मेरुस्तंभ (शंकु) के अगल-बगल अर्थात् छायापकर्षणादर्श चक्र के क्रमश: दाँये-बाँये घटियंत्र की तरह रेखायें खींचकर दिन व रात के प्रविभागों के अंत में बिन्दु आदि से चिह्नित किया जाय।
यंत्रांग ३ (Ancillary Component ३)
चतुरंगुलमायामषड्वितस्त्युन्नतंतथा।
इतरांगैस्समाहृतविद्युत्तत्र्यादिभिर्युतम्।।
स्वमध्यादन्तपर्यन्तंवितस्तैकान्तरंयथा।
रंध्रात्रयेणसंयुक्तंशिलाकाचविनिर्मितम्।।
मेरुस्तंभाख्यशंकुंतन्मध्येसंस्थापयेद्दृढम्।
उसके पश्चात् शिला-कांच (stony glass) से निर्मित ४ अंगुल व्यास एवं ७२ अंगुल आयाम (ऊँचाई) का शंकु, जिस पर केन्द्र व केन्द्र से प्रारंभ होकर अंतिम छोर तक १२ -१२ अंगुल (वितस्ति) की दूरी पर तीन रंध्र (छिद्र) एवम् अन्य यंत्रांगों से जोड़ने वाले ‘विद्युत तंत्र’ (electrical wiring) से युक्त हो, जिसे ‘मेरुस्तम्भ’ (principal pillar) भी कहते हैं, को आधार के मध्य में सुदृढ़ता से स्थिर किया जाय।
यंत्रांग ४, ५ और ६ (Ancillary Component ४, ५ and ६)
दृढंदशांगुलायामंक्रमात्यष्ट्यंगुलोन्नतम्।
पश्चातृतीयरंध्रस्यपार्श्वयोरुभयोरपि।।
तथाद्वितीयरंध्रस्यपार्श्वयोरुभयोरपि।
शास्त्रोक्तविधिनादंडमेकंसंधारयेद्दृढम्।।
दण्डंसंधारयेतद्वत्सुदृढंकाचनिर्मितम्।
क्रमादष्टाङ्गुलायामंपंचाशदंगुलोन्नतम्।।
चत्वारिंशत्यंगुलोन्नतमायामेषडंगुलम्।
एवंप्रथमरंध्रस्यपार्श्वयोरुभयोरपि।।
दंडप्रमाणमुभयोस्समानमपिपार्श्वयो:।
दंडंसंयोजयेत्पूर्ववद्दृढंकाचनिर्मितम्।।
तथासंधारयेत्तेषुदंडानित्रीण्ययथाक्रमम्।
किंचिदूर्ध्वभवेद्दक्षेवामेथस्थात्स्थितिर्यथा। ।
दंडानांमूलदेशेसंधारयेत्पार्श्वयो: क्रमात्।
पूर्वोक्ततंत्रिभिर्युक्तचक्रकीलान्यथाविधि।।
तत्पश्चात् ‘तृतीय रंध्र’ के दोनों ओर, मेरुस्तंभ से १०-१० अंगुल की दूरी पर कांच से निर्मित ६० अंगुल लंबाई के स्तंभ, यंत्रांग-४ के रूप में तथा द्वितीय रंध्र के दोनों ओर भी मेरुस्तम्भ से ८-८ अंगुल की दूरी पर ५० अंगुल के स्तंभ यंत्रांग-५ के रूप में स्थिर किये जाँय।
यद्यपि दोनों ओर के स्तम्भऱ्युगलों की लम्बाईयाँ बराबर हैं परन्तु दाहिनी ओर के स्तम्भ की ऊँचाई उसके संगत बायीं ओर के स्तम्भ से कुछ अधिक होगी। यह स्थिति सभी स्तम्भ युगलों की होगी। मेरु स्तम्भ के अगल-बगल के दंडों पर भी विद्युत तंत्र्य (electrical wiring) तथा स्तंभ के छोर एवं आधार पर चरखी व डोरी (rope and axel) का संयोजन होगा।
यंत्रांग ७ (Ancillary cemponent-७)
पंचाशदंगुलायामंविस्तीर्णतावदेवहि।
त्रिंशद्रेखांचितंपश्चादनुलोमविलोमत:।।
स्वरूपेभानुवद्भासमानंस्वकिरणैस्स्वत:।
प्रभाकरमणिं शुद्धमष्ठाशीत्यात्मकंलघु।।
धारयन्तंमध्यभागे आतपोष्णादिभिर्युतम्।
प्रभाकरादर्शचक्रंसूर्यप्रतिनिधिंदृढ़म्।।
मेरोस्तृतीयरंध्रस्थदण्डान्त्यकेन्द्रके।
त्रिचक्रकीलकैस्सम्यक्स्थापयेद्भ्राम्यतेयथा।।
तदुपरान्त ३०-३० रेखाओं से दोनों ओर चिह्नित, ५० अंगुल व्यास के प्रभाकर/दिवाकर चक्र (circular glass plate) जिसपर मणि संख्या ८० वाला सूर्य जैसा चटक “प्रभाकर मणि” (probably a collimating lens) जड़ दिया गया हो, तृतीय रन्ध्र पर इस प्रकार स्थापित करें जिससे दाहिने स्तंभ पर लगी ३ घिर्री-डोरी के संयोजन के द्वारा घुमाया जा सके।
यंत्रांग ८ (Ancillary component ८)
पश्चाद्दिवाकरादर्शवद्रेखाबिन्दुभिर्युतम्।
सुधाद्रवशशोषादिद्रावकेश्चसुसंस्कृतम्।।
एतत्संस्कारतश्श्वेताभ्रवद्भास्वरमद्भुतम्।
आकारेणांशुभिश्चैवचन्द्रमण्डलवत्स्थितम्।।
भ्राजमानसप्तपंचाशदुत्तरशतात्मकम्।
किरणग्राहकमणिदधानमध्यकेन्द्रके।।
पंचचत्वारिंशदंगुलायामंवर्तुलंतथा।
षोडशोतरद्विशतसंख्याकसुद्ढंलघु।।
निशाकरादर्शचक्रचन्द्रपतिनिधिक्रमात्।
पूर्ववत्तृतीयरंध्रवामदण्डान्त्यकेन्द्रके।।
संधारयेत्कीलकाद्यैस्स्वतस्संचाल्यतेयथा।
पुन: दिवाकर दर्शन के समान चिह्नित एवं (भवत:) सुधाद्रव (CaOH२) तथा शशोशादि द्रावक (phosphoric acids) के द्वारा वासित शुभ्र, २०६ क्रमांक का २४ अंगुल व्यास का निशाकर दर्शचक्र, किरण-ग्राहक-मणि से युक्त मेरुस्तंभ के ऊपर तीसरे रंध्र पर इस प्रकार स्थापित करें जिससे बाँई ओर के स्तम्भ पर स्थित चरखी-डोर के संयोजन के द्वारा घुमाया जा सके।
यंत्रांग ९ (Ancillary component ९)
उष्णापकर्षकंनामलोहंस्यात्कृत्कंतत:।
तेनप्रकल्पिह्यतंभानुफलकंमधुवर्णकम्।।
निशाकरादर्शचक्रादपिन्यूनषडंगुलम्।
बिन्दुरेखांकनैर्युक्तं अवटद्वयसंयुतम्।।
प्रथमावटमध्यस्थपारदेसन्निवेशितम्।
चतुषष्ट्युत्तरशतसंख्याकंभारवर्जितम्।।
घर्मपहारकमणिंबिन्दुरेखांकनैर्युतम्।
दधानंसुदृढ़सूक्ष्ममेरोरूर्ध्वंयथाविधि।।
क्रमाद्द्वितीयरंध्रस्थदक्षदंडान्त्यकेन्द्रके।
त्रिचक्रकीलकैस्सम्यक्स्थापयेद्भ्राम्यतेयथा।।
तत्पश्चात् ‘ऊष्मापकर्षक लौह’ से बना मधुवर्ण का निशाकरदर्श चक्र से ६ अंगुल कम व्यास का, रेखाओं, बिन्दुओं व संकेतों से चिह्नित ‘भानुफलक’, जिसके मध्य व किनारे दो अवट (Cavity) हों तथा जिसमें से प्रथम पारद से पूरित अवट में १६४ क्रमांक का ‘घर्मापहारक मणि’ (infrared sensitive glass) निमज्जित हो, द्वितीय रंध्र पर स्थापित करें जिससे कि मेरुस्तंभ की दाँई ओर के स्तम्भ पर लगी चरखी-डोर के समंजन से इसे स्वतंत्रतापूर्वक घुमा सकें।
यंत्रांग १० (Ancillary component १०)
पश्चाच्चतुर्दशोत्तरद्विशतेनयथाविधि।
तमोगर्भाख्यमणिनायोजितंभारवर्जितम्।।
त्रिसप्तत्युत्तरशतात्मकंधूम्राकृतिंतत:।
छायामुखादर्शचक्रबिन्दुरेखांकनैर्युतम्।।
मेरोर्द्वितीयरंध्रस्थवामदण्डान्त्यकेन्द्रके।
निशाकरादर्शस्याधस्थात्स्थापयेदृढ़म्।।
एतत्सूर्यप्रकाशस्थतमछायाप्रकर्षणम्।
कृत्वाविनिश्चीयतेतत्प्रमाणंचांकनादिभि:।।
इसके पश्चात् बिन्दु, रेखा आदि से अंकित, १७३ क्रमांक वाले धूम के रंग के काँच का ‘छाया मुखदर्शचक्र जो कि २१४ क्रमांक वाले “तमोगर्भ मणि” (a lens suitable to ultraviolate radiation) से विधिपूर्वक सज्जित, द्वितीय रंध्र के नीचे इस प्रकार नियोजित करें जिससे मेरु स्तंभ के बाँई ओर के दण्ड पर चरखी-डोर की सहायता से घुमाया जा सके। यह सूर्य प्रकाश में स्थित तमछाया (ultraviolet radiation) को आवर्तित (अपकर्षण) कर अंकन आदि (graduations) से उनका परिमाण निर्धारित करता है।
यंत्रांग ११ (Ancillary component ११)
पश्चाद्द्विचत्वारिंशतिकप्रभामणिनायुतम्।
भागर्भादर्शवर्गस्थंषण्णवत्यात्मकंतत:।।
स्वच्छंप्रभामुखादर्शबिंदुर्रेखांकनैर्युतम्।
मेरुस्तंभप्रथमरंध्रदक्षदण्डान्त्यकेन्द्रके।।
त्रिचक्रकीलकैस्सम्यक्स्थापयेद्भ्राम्यतेयथा।
किरणोष्णप्रकाशांशंसूर्यस्येतत्स्वभावत:।।
पूर्वोक्तभानुफलकात्समाकृष्यस्वशक्तित:।
निश्चीयतेतत्प्रकाशप्रमाणस्वांकनादिभि:।।
पुन: अंशांकित ९६ क्रमांक के कांच से निर्मित “भानुगर्भदर्शचक्र” जो कि ४२ क्रमांक वाले “प्रभाकर मणि” से युक्त हो प्रथम रंध्र के ऊपर मेरुस्तंभ से दाहिनी ओर के दंड पर अवास्थित तीन चरखी-अक्ष पर ठीक से संयोजन करें, जिससे ठीक तरह से घुमाया जा सके।
यंत्रांग १२ (Ancillary component १२)
एतद्भवेत्कृतकलोह:प्रकाशस्तंभनाभिद:।
तेनप्रकल्पितंचक्रंबिन्दुरेखांकनैर्युतम्।।
नवसंख्याकमणिनावल्लभाख्येनराजितम्।
प्रकाशस्तंभनाचक्रंपंचाशीत्यात्मकंलघु।।
मेरुस्तंभप्रथमकेन्द्रवामदण्डान्त्यकेन्द्रके।
त्रिचक्रकीलकैस्सम्यक्स्थापयेत्सुदृढ़ंयथा।।
भागर्भदर्पणस्थितकिरणोष्णप्रकाशकम्।
एतत्स्वशक्त्याबध्नात्यस्पंदनंस्याद्यथाक्रमम्। ।
(पूर्व में उल्लिखित विधि से बनाये गये क्रमांक ९६ वाले) “प्रकाश स्तंभनाभिद लौह” नामक विशिष्ट काँच से निर्मित तथा बिन्दु, रेखा आदि से अंकित “प्रकाशस्तंभनचक्र”, जिसपर ९ क्रमांक वाला “वल्लभ मणि” बैठाया गया हो, प्रथम रंध्र के नीचे मेरुस्तंभ के बाँयी ओर के दण्ड पर तीन चरखी-अक्ष संयोजन को ठीक तरह से सुदृढ़ता पूर्वक स्थापित किया जाय, जिससे ‘भागर्भ दर्पण’ के गुणों के कारण प्रकाश में स्थित किरणों का मापन हो सके।
यंत्रांग १३ (Ancillary component १३)
छायाप्रभाविभाजकलौहस्यात्कृतकस्तत:।
तेनप्रकल्पितंछायाप्रभाविभाजकपट्टिकाम्।।
यावत्प्रमाणंचक्राणांषण्णामुभयपार्श्वयो:।
तावत्प्रमाणंसंक्लृप्तांपट्टिकांभारवर्जिताम्।।
मेरूस्तंभप्रथमरंध्राधोभागेयथाविधि।
पार्श्वद्वयस्थचक्राणांसंधिस्थानंन्यसेत्तत:।।
तत्पश्चात् “छाया-प्रभा विभाजक लौह” (ultraviolet-visible differentiating glass) से निर्मित “छाया-प्रभा विभाजक पट्टिका”, जो कृति में दो गोलाकार फलकों के अगल-बगल आपस में जुड़ने से प्राप्त होती है, इस प्रकार की हो ताकि मेरुस्तंभ के दोनों ओर के सभी चक्रों के क्षैतिज तल में उर्ध्वाधर प्रक्षेप को समेटने योग्य हो।
चित्र संख्या १७
महर्षि भरद्वाज का नवीनता से परिपूर्ण “ध्वान्त-प्रमापकऱ्यंत्र” (A Novel Spectrometer Monochromator) का रेखा-चित्र
“अंशुबोधिनी” के उपलब्ध पाठ में उपर्युक्त यंत्र के वर्णन को दृष्टिगत रखते हुए, इस लेख के लेखक के द्वारा संभावित रेखाचित्र अभिकल्पित किया है, जो कि अंशुबोधिनी के पाठ के अनुसार उस समय ज्ञात पाँच प्रकार के यंत्रों में से एक है, चित्र संख्या-१७ में दर्शाया गया है।
जब हम इस यंत्र के पाठ (text) का अध्ययन करते हैं तो प्रतीत होता है कि इस यंत्र में प्रकाश विकिरण के तीनों क्षेत्र अर्थात् अंधतम, गूढ़तम एवं तम (ultraviolet, visible and infrared region) के मापन के लिये आवश्यकता के अनुसार सुविधा निहित है। उदाहरणार्थ, गूढ़तम (visible radiation) के मापन हेतु प्रकाश को दिवाकर दर्श चक्र (यंत्रांग – ७) पर स्थित प्रभाकर मणि, जो कि समानान्तर कारक मणि (collimating lens) के रूप में कार्य करता है, पर आपतित करते हैं, इससे निर्गत समानान्तर किरणें निशाकर दर्श चक्र (यंत्रांग – ८) पर स्थित “किरण ग्राहक मणि” (conical prism) द्वारा आवर्त्तित होकर अंत में प्रभामुखदर्शचक्र (यंत्रांग – ११) पर स्थित प्रभामणि के द्वारा “छायापकर्षण दर्श” (यंत्रांग – २) पर वार्णिक वृत्तों (spectral remhd) के रूप में, जिनका केन्द्र अंशांकित वृत्तात्मक पैमाने के केन्द्र पर स्थित होते हुए प्रतिबिम्ब बनाता है।
तत्तद्रेखांकनैस्सम्यक्प्रमाणंतमस:क्रमात्।
निर्णेतुंशक्यतेतस्मात्तदंगोत्रप्रदर्शित:।।
प्रमाणविधिरप्यत्रसंकेतात्सोच्यतेधुना।
उपर्युक्त अंशाकित वृत्तात्मक पैमाने पर वार्णिकवृत्त (spectral ring) के छेदन बिन्दु के संगत कोण के द्वारा तम-प्रमापक-संख्या किंवा ‘सांकेत’ का मापन होता है।
वर्णक्रमीय आँकड़े (Spectral data) एवं उनकी विवेचना-
इस संदर्भ में अंशुबोधिनी में तम के वर्णक्रमीय वृत्तों के सांकेतिक नाम (सांकेत) के साथ तम-प्रमापक-संख्या कोण की “कक्ष्य” इकाई में क्रमपूर्वक दी गयी है जोकि निम्नांकित उद्धरण से प्राप्त होती है –
संकेतों की नियमावली-
तम:प्रमापकसंख्यासांकेतनिर्णय:।
अलिकंकौलिकंचैवरन्ध्रंमण्डमत:परम्।
बिंबोकंवीचकमथतामसंरौणिकंस्फुटम्।।
स्तंभं शंबरमंछूरंगुच्छकंकुडुपंतथा।
गुळिकंछेटिकंपद्मंमण्डलंकंचुकंतथा।। इत्यादि।।
तम (radiation) की तम प्रमापक संख्याओं की संगत सांकेतों की नामावली-(संस्कृत पाठ) (तम-प्रमापक-संख्या) (सांकेत)
पंचविंशच्छतकक्ष्यतमोबिन्दुरितीर्यते। १२५ तमोबिन्दु
तत्पपंचकमलीकंस्यात्त्र्यळीकंकौलिकंभवेत्।। १३० अलिक
रंध्रतत्पंचकंविन्द्यान्मण्डतस्याष्ठकंविदु:। १३३ कौलिक
तन्मण्डदशकंबिम्बोकमितिप्रोच्यतेतथा।। १३८ रंध्र
– १४६ मण्ड
– १५६ बिम्बोक
तद्विंशतिर्वीचकंस्यातामसंतद्दशस्तथा। १७६ विचक
तदष्टकंरौणिकंस्यात्कुटंतद्वादशेतिच।। १८६ तमस
– १९४ रौणिक
– २०६ कुट
ततस्तदशकंस्तंभमितिसंकीर्त्यतेक्रमात्। २१६ स्तम्भ
तत्स्तंभपंचवदशकंशंबरंस्यातथैवहि।। २३१ शम्बर
शंबरस्याष्टदशकंमंछूरमितिकीर्तितम्। २४९ मंचुर
तदष्टदशकंतद्वद्गुच्छमित्यभिधीयते।। २६७ गुच्छक
– २८७ कुडुप
कुडुपंतद्विंशतिस्स्यातदष्टाविंशतिक्रमात्। ३१५ गुलिका
प्रोच्यतेगुलिकमितितत्त्रिंशच्छेटिकंस्मृतम्।। ३४५ छोटिका
छेटिकस्यत्रयोविंशत्पद्ममित्यभिथीयते। ३६८ पद्म
तत्पद्मद्वात्रिंशतिर्मण्डळमित्युंच्यतेतथा।। ४०० मण्डल
तन्मण्डळाष्टविंशत्कंचुकमित्यभिथीयते। ४२८ कंचुक
इत्यादि।। – इत्यादि
अंशुबोधिनी के पाठ (text) में उद्धृत सूर्यप्रकाश के वर्णक्रम से संदर्भित ये आँकड़े विवेचित किये जाँच इसके पूर्व प्राचीन कोण की इकाई “कक्ष्य”, मणि संयोजन (prism setting) तथा आवश्यक सूत्र के निष्पादन हेतु वैज्ञानिक टिप्पणियों की आवश्यकता है।
प्राचीन कोण की इकाई “कक्ष्य”-
भास्कराचार्य की गणित की पुस्तक “लीलावती” के पाठ के अनुसार
व्यासेभनन्दाग्निहतेविभक्तेखबाणसूर्यैस्स: परिधिस्सूक्ष्म:।
द्वाविंशतिघ्ने हृतेथ शैले स्थूलोथवा स्याद्व्यवहारयोग्य:।।
“परिधि के सूक्ष्म परिमाण के लिए व्यास को ३९२७ से गुणा करके १२५० से भाग दें। व्यावहारिक किंवा स्थूल मान के लिए २२ से गुणा करके ७ से भाग दें।
“अत: “π” का मान २२/ ७ की अपेक्षा अधिक सही मान निमांकित व्यंजक से प्राप्त होगा।
π = ३९२७ / १२५० = ३९२७ x ८ / १२५० x ८ = ३१४१६ / १००००अर्थात् १०,०००
इकाई लम्बाई वाले वृत्त की अर्ध परिधि ३१४१६ इकाई के तुल्य होगी। अध्ययन से यह स्पष्ट है कि प्राचीन काल में इस परिधि पर की इकाई चाप (arc) के द्वारा केन्द्र पर बने कोण को १ “कक्ष्य” मानते रहे हैं।
अत: १ कक्ष्य = १०-४ रेडियन (radian) किंवा १०.००० कक्ष्य = १ रेडियन। द्रष्टव्य है कि जिस प्रकार “रेडियन” शब्द अंग्रेजी शब्द रेडियस (radius) से व्युत्पन्न होता है, उसी प्रकार “कक्ष्य” भी कक्षा (orbit) से व्युत्पन्न प्रतीत होता है।
३(ii) मणि-संयोजन (Prism Setting)-
यंत्र की विशिष्ट संरचना अंतरिक्षीय स्रोतों किंवा सौर विकिरण को सुलभता से प्राप्त करने एवं समानान्तर कारक मणि (collimating lens) की नाभि (focus) पर अवस्थित “सूचि छिद्र” (pin hole) पर आपतित होने योग्य है। प्रयुक्त मणि (prism) शंक्वाकार (conical) है जिसका समतल आपतित समानान्तर किरणों के अनुदिश एवं लम्बवत् होता है। विशिष्ट तरंग दैर्ध्य (wave length) वाला कोई वार्णिक-विकिरण-मणि (prism) एवं प्रतिबिम्ब-कारक-मणि (focussing lens) से आवर्त्तन के उपरान्त नाभितल में वार्णिक वृत्त (spectral circles) के रूप में बिम्ब बनाता है।
चित्र संख्या-१८ में किरण आरेख प्रदर्शित है। यह मणि संयोजन (prism setting) सभी तरंग दैर्ध्य वाली किरणों के लिये एक कालिक (simultancously) न्यूनतम विचलन (minimum deviation) किंवा सार्वत्रिक (universal) संयोजन के तुल्य है, जबकि त्रिकोणीय मणि (triangular prism) की अवस्था में प्रत्येक तरंग दैर्ध्य की किरणों के लिये अलग-अलग मणि-संयोजन आवश्यक होगा।
त्रिपार्श्व (Triangular prism) ABC के द्वारा किसी दी गयी तरंग दैर्ध्य की किरण के न्यूनतम विचलन के लिये प्रतिबन्ध है कि आपतित एवं निर्गत किरणें अपने संगत पार्श्व पर समान रूप से झुकी हों जैसा कि चित्रसंख्या १९ (i) में पदर्शित है। त्रिपार्श्व में किरण का मार्ग, आधार BC के समानान्तर हो जाता है। कल्पना करें कि त्रिपार्श्व के शीर्ष । से गुजरने वाला, BC रेखा पर लम्बवत् तथा ABC तल पर भी, अभिलम्बवत् है उस पर आपतित किरणें लम्बवत् होती हैं जो कि सभी तरंग दैर्ध्य की किरणों के लिये सत्य होगा तथा यह प्रतिबन्ध अनुपालित होगा। कल्पना करें काट रेखा युक्त (Shaded) अर्धभाग त्रिपार्श्व से निकाल देते हैं जैसा कि चित्र संख्या १९ (ii) में प्रदर्शित है तथा किरणें ।क् तल पर आपतित होती है, तो दाहिने भाग के द्वारा विचलन वही होगा जैसा कि पूर्व में न्यूनतम विचलन के लिये प्रतिबन्ध के समय था। चित्र संख्या १९ (iii) आवश्यक सूत्र का निगमन-
त्रिपार्श्व के द्रव्य का आवर्त्तनांक ‘µ’ का मान निम्नांकित व्यंजक से प्राप्त होगा।
µ = sin ( α+δ ) / sin α ……………………………(१)
जहाँ पर δ और α क्रमश: शंक्वाकार मणि का आधार कोण एवं आवर्त्तित किरण का विचलन है।

हम जानते हैं कि तरंग दैर्ध्य λ पर आवर्त्तनांक µ निर्भर करता है तथा λ का मान अनंत की ओर अग्रसर हो

सृष्टि की उत्पत्ति की प्रक्रिया नाद के साथ हुई-

सृष्टि की उत्पत्ति की प्रक्रिया नाद के साथ हुई-





















सृष्टि की उत्पत्ति की प्रक्रिया नाद के साथ हुई। जब प्रथम महास्फोट (बिग बैंग) हुआ, तब आदि नाद उत्पन्न हुआ। उस मूल ध्वनि को जिसका प्रतीक ‘ॐ‘ है, नादव्रह्म कहा जाता है। पांतजलि योगसूत्र में पातंजलि मुनि ने इसका वर्णन ‘तस्य वाचक प्रणव:‘ की अभिव्यक्ति ॐ के रूप में है, ऐसा कहा है। माण्डूक्योपनिषद्‌ में कहा है-
ओमित्येतदक्षरमिदम्‌ सर्वं तस्योपव्याख्यानं
भूतं भवद्भविष्यदिपि सर्वमोड्‌◌ंकार एवं
यच्यान्यत्‌ त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव॥
माण्डूक्योपनिषद्‌-१॥
अर्थात्‌ ॐ अक्षर अविनाशी स्वरूप है। यह संम्पूर्ण जगत का ही उपव्याख्यान है। जो हो चुका है, जो है तथा जो होने वाला है, यह सबका सब जगत ओंकार ही है तथा जो ऊपर कहे हुए तीनों कालों से अतीत अन्य तत्व है, वह भी ओंकार ही है।
वाणी का स्वरूप
हमारे यहां वाणी विज्ञान का बहुत गहराई से विचार किया गया। ऋग्वेद में एक ऋचा आती है-
चत्वारि वाक्‌ परिमिता पदानि
तानि विदुर्व्राह्मणा ये मनीषिण:
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति
तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥
ऋग्वेद १-१६४-४५
अर्थात्‌ वाणी के चार पाद होते हैं, जिन्हें विद्वान मनीषी जानते हैं। इनमें से तीन शरीर के अंदर होने से गुप्त हैं परन्तु चौथे को अनुभव कर सकते हैं। इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए पाणिनी कहते हैं, वाणी के चार पाद या रूप हैं-
१. परा, २. पश्यन्ती, ३. मध्यमा, ४. वैखरी
वाणी की उत्पत्ति
वाणी कहां से उत्पन्न होती है, इसकी गहराई में जाकर अनुभूति की गई है। इस आधार पर पाणिनी कहते हैं, आत्मा वह मूल आधार है जहां से ध्वनि उत्पन्न होती है। वह इसका पहला रूप है। यह अनुभूति का विषय है। किसी यंत्र के द्वारा सुनाई नहीं देती। ध्वनि के इस रूप को परा कहा गया।
आगे जब आत्मा, बुद्धि तथा अर्थ की सहायता से मन: पटल पर कर्ता, कर्म या क्रिया का चित्र देखता है, वाणी का यह रूप पश्यन्ती कहलाता है, जिसे आजकल घ्त्ड़द्यदृद्धत्ठ्ठथ्‌ कहते हैं। हम जो कुछ बोलते हैं, पहले उसका चित्र हमारे मन में बनता है। इस कारण दूसरा चरण पश्यन्ती है।
इसके आगे मन व शरीर की ऊर्जा को प्रेरित कर न सुनाई देने वाला ध्वनि का बुद्बुद् उत्पन्न करता है। वह बुद्बुद् ऊपर उठता है तथा छाती से नि:श्वास की सहायता से कण्ठ तक आता है। वाणी के इस रूप को मध्यमा कहा जाता है। ये तीनों रूप सुनाई नहीं देते हैं। इसके आगे यह बुद्बुद् कंठ के ऊपर पांच स्पर्श स्थानों की सहायता से सर्वस्वर, व्यंजन, युग्माक्षर और मात्रा द्वारा भिन्न-भिन्न रूप में वाणी के रूप में अभिव्यक्त होता है। यही सुनाई देने वाली वाणी वैखरी कहलाती है और इस वैखरी वाणी से ही सम्पूर्ण ज्ञान, विज्ञान, जीवन व्यवहार तथा बोलचाल की अभिव्यक्ति संभव है।
वाणी की अभिव्यक्ति
यहां हम देखते हैं कि कितनी सूक्ष्मता से उन्होंने मुख से निकलने वाली वाणी का निरीक्षण किया तथा क से ज्ञ तक वर्ण किस अंग की सहायता से निकलते हैं, इसका उन्होंने जो विश्लेषण किया वह इतना विज्ञान सम्मत है कि उसके अतिरिक्त अन्य ढंग से आप वह ध्वनि निकाल ही नहीं सकते हैं।
क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है।
च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ लालू से लगती है।
ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।
त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ दांतों से लगती है।
प, फ, ब, भ, म,- ओष्ठ्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण ओठों के मिलने पर ही होता है।
स्वर विज्ञान
सभी वर्ण, संयुक्ताक्षर, मात्रा आदि के उच्चारण का मूल ‘स्वर‘ हैं। अत: उसका भी गहराई से अध्ययन तथा अनुभव किया गया। इसके निष्कर्ष के रूप में प्रतिपादित किया गया कि स्वर तीन प्रकार के हैं।
उदात्त-उच्च स्वर
अनुदात्त-नीचे का स्वर
स्वरित- मध्यम स्वर
इनका और सूक्ष्म विश्लेषण किया गया, जो संगीत शास्त्र का आधार बना। संगीत शास्त्र में सात स्वर माने गए जिन्हें सा रे ग म प ध नि के प्रतीक चिन्हों से जाना जाता है। इन सात स्वरों का मूल तीन स्वरों में विभाजन किया गया।
उच्चैर्निषाद, गांधारौ नीचै ऋर्षभधैवतौ।
शेषास्तु स्वरिता ज्ञेया:, षड्ज मध्यमपंचमा:॥
अर्थात्‌ निषाद तथा गांधार (नि ग) स्वर उदात्त हैं। ऋषभ और धैवत (रे, ध) अनुदात्त। षड्ज, मध्यम और पंचम (सा, म, प) ये स्वरित हैं।
इन सातों स्वरों के विभिन्न प्रकार के समायोजन से विभिन्न रागों के रूप बने और उन रागों के गायन में उत्पन्न विभिन्न ध्वनि तरंगों का परिणाम मानव, पशु प्रकृति सब पर पड़ता है। इसका भी बहुत सूक्ष्म निरीक्षण हमारे यहां किया गया है।
विशिष्ट मंत्रों के विशिष्ट ढंग से उच्चारण से वायुमण्डल में विशेष प्रकार के कंपन उत्पन्न होते हैं, जिनका विशेष परिणाम होता है। यह मंत्रविज्ञान का आधार है। इसकी अनुभूति वेद मंत्रों के श्रवण या मंदिर के गुंबज के नीचे मंत्रपाठ के समय अनुभव में आती है।
हमारे यहां विभिन्न रागों के गायन व परिणाम के अनेक उल्लेख प्राचीनकाल से मिलते हैं। सुबह, शाम, हर्ष, शोक, उत्साह, करुणा-भिन्न-भिन्न प्रसंगों के भिन्न-भिन्न राग हैं। दीपक से दीपक जलना और मेघ मल्हार से वर्षा होना आदि उल्लेख मिलते हैं। वर्तमान में भी कुछ उदाहरण मिलते हैं।
कुछ अनुभव
(१) प्रसिद्ध संगीतज्ञ पं. ओंकार नाथ ठाकुर १९३३ में फ्लोरेन्स (इटली) में आयोजित अखिल विश्व संगीत सम्मेलन में भाग लेने गए। उस समय मुसोलिनी वहां का तानाशाह था। उस प्रवास में मुसोलिनी से मुलाकात के समय पंडित जी ने भारतीय रागों के महत्व के बारे में बताया। इस पर मुसोलिनी ने कहा, मुझे कुछ दिनों से नींद नहीं आ रही है। यदि आपके संगीत में कुछ विशेषता हो, तो बताइये। इस पर पं. ओंकार नाथ ठाकुर ने तानपूरा लिया और राग ‘पूरिया‘ (कोमल धैवत का) गाने लगे। कुछ समय के अंदर मुसोलिनी को प्रगाढ़ निद्रा आ गई। बाद में उसने भारतीय संगीत की भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा रॉयल एकेडमी ऑफ म्यूजिक के प्राचार्य को पंडित जी के संगीत के स्वर एवं लिपि को रिकार्ड करने का आदेश दिया।
२. आजकल पाश्चात्य जीवन मूल्य, आचार तथा व्यवहार का प्रभाव पड़ने के साथ युवा पीढ़ी में पाश्चात्य पॉप म्यूजिक का भी आकर्षण बढ़ रहा है। पॉप म्यूजिक आन्तरिक व्यक्तित्व को कुंठित और निम्न भावनाओं को बढ़ाने का कारण बनता है, जबकि भारतीय संगीत जीवन में संतुलन तथा उदात्त भावनाओं को विकसित करने का माध्यम है। इसे निम्न अनुभव प्रयोग स्पष्ट कर सकते हैं।
पांडिचेरी स्थित श्री अरविंद आश्रम में श्रीमां ने एक प्रयोग किया। एक मैदान में दो स्थानों पर एक ही प्रकार के बीज बोये गये तथा उनमें से एक के आगे पॉप म्यूजिक बजाया गया तथा दूसरे के आगे भारतीय संगीत। समय के साथ अंकुर फूटा और पौधा बढ़ने लगा। परन्तु आश्चर्य यह था कि जहां पॉप म्यूजिक बजता था, वह पौधा असंतुलित तथा उसके पत्ते कटे-फटे थे। जहां भारतीय संगीत बजता था, वह पौधा संतुलित तथा उसके पत्ते पूर्ण आकार के और विकसित थे। यह देखकर श्रीमां ने कहा, दोनों संगीतों का प्रभाव मानव के आन्तरिक व्यक्तित्व पर भी उसी प्रकार पड़ता है जिस प्रकार इन पौधों पर पड़ा दिखाई देता है।
(३) हम लोग संगीत सुनते हैं तो एक बात का सूक्ष्मता से निरीक्षण करें, इससे पाश्चात्य तथा भारतीय संगीत की प्रकृति तथा परिणाम का सूक्ष्मता से ज्ञान हो सकता है। जब कभी किसी संगीत सभा में पं. भीमसेन जोशी, पं. जसराज या अन्य किसी का गायन होता है और उस शास्त्रीय गायन में जब श्रोता उससे एकाकार हो जाते हैं तो उनका मन उसमें मस्त हो जाता है, तब प्राप्त आनन्द की अनुभूति में वे सिर हिलाते हैं। दूसरी ओर जब पाश्चात्य संगीत बजता है, कोई माइकेल जैक्सन, मैडोना का चीखते-चिल्लाते स्वरों के आरोह-अवरोह चालू होते हैं तो उसके साथ ही श्रोता के पैर थिरकने लगते हैं। अत: ध्यान में आता है कि भारतीय संगीत मानव की नाभि के ऊपर की भावनाएं विकसित करता है और पाश्चात्य पॉप म्यूजिक नाभि के नीचे की भावनाएं बढ़ाता है जो मानव के आन्तरिक व्यक्तित्व को विखंडित कर देता है।
ध्वनि कम्पन (च्दृद्वदड्ड ज्त्डद्धठ्ठद्यत्दृद) किसी घंटी पर प्रहार करते हैं तो उसकी ध्वनि देर तक सुनाई देती है। इसकी प्रक्रिया क्या है? इसकी व्याख्या में वात्स्यायन तथा उद्योतकर कहते हैं कि आघात में कुछ ध्वनि परमाणु अपनी जगह छोड़कर और संस्कार जिसे कम्प संतान-संस्कार कहते हैं, से एक प्रकार का कम्पन पैदा होता है और वायु के सहारे वह आगे बढ़ता है तथा मन्द तथा मन्दतर इस रूप में अविच्छिन्न रूप से सुनाई देता है। इसकी उत्पत्ति का कारण स्पन्दन है।
प्रतिध्वनि : विज्ञान भिक्षु अपने प्रवचन भाष्य अध्याय १ सूत्र ७ में कहते हैं कि प्रतिध्वनि (कड़ण्दृ) क्या है? इसकी व्याख्या में कहा गया कि जैसे पानी या दर्पण में चित्र दिखता है, वह प्रतिबिम्ब है। इसी प्रकार ध्वनि टकराकर पुन: सुनाई देती है, वह प्रतिध्वनि है। जैसे जल या दर्पण का बिम्ब वास्तविक चित्र नहीं है, उसी प्रकार प्रतिध्वनि भी वास्तविक ध्वनि नहीं है।
रूपवत्त्वं च न सामान्य त: प्रतिबिम्ब प्रयोजकं
शब्दास्यापि प्रतिध्वनि रूप प्रतिबिम्ब दर्शनात्‌॥
विज्ञान भिक्षु, प्रवचन भाष्य अ. १ सूत्र-४७
घ्त्ड़ण्‌ क्ष्दद्यड्ढदद्मत्द्यन्र्‌ ठ्ठदड्ड च्र्त्थ्र्डद्धड्ढ-वाचस्पति मिश्र के अनुसार ‘शब्दस्य असाधारण धर्म:‘- शब्द के अनेक असाधारण गुण होते हैं। गंगेश उपाध्याय जी ने ‘तत्व चिंतामणि‘ में कहा- ‘वायोरेव मन्दतर तमादिक्रमेण मन्दादि शब्दात्पत्ति।‘ वायु की सहायता से मन्द-तीव्र शब्द उत्पन्न होते हैं।
वाचस्पति, जैमिनी, उदयन आदि आचार्यों ने बहुत विस्तारपूर्वक अपने ग्रंथों में ध्वनि की उत्पत्ति, कम्पन, प्रतिध्वनि, उसकी तीव्रता, मन्दता, उनके परिणाम आदि का हजारों वर्ष पूर्व किया जो विश्लेषण है, वह आज भी चमत्कृत करता है।
ध्वनि शास्त्र पर आधारित भारतीय लिपि
१८वीं -१९वीं सदी के अनेक पाश्चात्य संशोधकों ने यह भ्रमपूर्ण धारणा फैलाने का प्रयत्न किया कि भारत के प्राचीन ऋषि लेखन कला से अनभिज्ञ थे तथा ईसा से ३००-४०० वर्ष पूर्व भारत में विकसित व्राह्मी लिपि का मूल भारत से बाहर था। इस संदर्भ में डा. ओरफ्र्ीड व म्युएलर ने प्रतिपादित किया कि भारत को लेखन विद्या ग्रीकों से मिली। सर विलियम जोन्स ने कहा कि भारतीय व्राह्मी लिपि सेमेटिक लिपि से उत्पन्न हुई। प्रो. बेवर ने यह तथ्य स्थापित करने का प्रयत्न किया कि व्राह्मी का मूल फोनेशियन लिपि है। डा. डेव्हिड डिरिंजर ने अनुमान किया कि अरेमिक लिपि से व्राह्मी उत्पन्न हुई। मैक्समूलर ने संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखते समय लिपि के विकास के संदर्भ में अपना यह मत प्रतिपादित किया कि लिखने की कला भारत में ईसा से ४०० वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई। दुर्भाग्य से बाद के समय में भारतीय विद्वानों ने भी पाश्चात्य संशोधकों के स्वर में स्वर मिलाते हुए उन्हीं निष्कर्षों का प्रतिपादन किया। इस सारी प्रक्रिया में अपने देश की परम्परा व ग्रंथों में लिपि के विकास की गाथा जानने का विशेष प्रयत्न नहीं हुआ।
देखें कि वास्तविकता क्या है?
प्रसिद्ध पुरातत्ववेता और लिपि विशेषज्ञ अ.ब. वालावलकर तथा लिपिकार लक्ष्मण श्रीधर वाकणकर ने अपने संशोधन से यह सिद्ध किया कि भारतीय लिपि का उद्गम भारत में ही हुआ है तथा ध्वन्यात्मक आधार पर लेखन परम्परा वेद काल से विद्यमान थी, जिसकी पुष्टि अनेक पुरातत्वीय साक्ष्यों से भी होती है।
एक आदर्श ध्वन्यात्मक लेखन की बाधाओं का वर्णन एरिक गिल अपने टाइपोग्राफी (च्र्न्र्द्रदृढ़द्धठ्ठद्रण्न्र्) पर लिखे निबंध में कहते हैं कि किसी समय कोई अक्षर किसी ध्वनि का पर्यायवाची रहा होगा, परन्तु रोमन लिपि के अध्ययन से अमुक अक्षर हमेशा व हर जगह अमुक ध्वनि का पर्याय है, यह तथ्य ध्यान में नहीं आता। उदाहरण के तौर पर दृद्वढ़ण्‌- ये चार अक्षर ७ भिन्न-भिन्न प्रकार व भिन्न-भिन्न ध्वनि से उच्चारित होते हैं- ‘ओड, अफ, ऑफ, आऊ, औ, ऊ, ऑ‘। यह लिखने के बाद अपने निष्कर्ष के रूप में गिल कहते हैं कि मेरा स्पष्ट विचार है, ‘हमारे रोमन अक्षर ध्वनि का लेखन, मुद्रण ठीक प्रकार से करते हैं, यह कहना मूर्खतापूर्ण होगा।‘
दूसरी ओर भारत में ध्वन्यात्मक लेखन परंपरा युगों से रही है। इसके कुछ प्रमाण हमारे प्राचीन वाङ्मय में प्राप्त होते हैं-
१. यजु तैत्तरीय संहिता में एक कथा आती है कि देवताओं के सामने एक समस्या थी कि वाणी बोली जाने के बाद अदृश्य हो जाती है। अत: इस निराकार वाणी को साकार कैसे करें? अत: वे इन्द्र के पास गए और कहा ‘वाचंव्या कुर्वीत‘ अर्थात्‌ वाणी को आकार प्रदान करो। तब इन्द्र ने कहा मुझे वायु का सहयोग लेना पड़ेगा। देवताओं ने इसे मान्य किया और इन्द्र ने वाणी को आकार दिया। वाणी को आकार देना यानी लेखन विद्या। यही इन्द्र वायव्य व्याकरण के नाम से प्रसिद्ध है। इसका प्रचलन दक्षिण भारत में अधिक हैं-
२. अथर्ववेद में गणक ऋषिकृत सूक्त गणपति अथर्वशीर्ष की निम्न पंक्तियां लेखन विद्या की उत्पत्ति का स्पष्ट प्रमाण देती हैं-
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम्‌। अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितम्‌। तोरण रुद्धम्‌। एतत्तवमनुस्वरूपम्‌। गकार: पूर्वरूपम्‌। अकारो मध्यरूपम्‌ अनुस्वारश्र्चान्त्यरूपम्‌। बिन्दुरुत्तररूपम। नाद: संधानम्‌। संहिता संधि:। सैषा गणेश विद्या।
अर्थात्‌ पहले ध्वनि के गण का उच्चारण करना फिर उसी क्रम में वर्ण (रंग की सहायता से) बाद में लिखना तत्पश्चात्‌ अक्षर पर अनुस्वार देना, वह अर्ध चंद्रयुक्त हो। इस प्रकार हे गणेश आपका स्वरूप, चित्र इस प्रकार होगा ग्‌ यानी व्यंजन तथा बीच का स्वर का भाग यानी आकार रूपदंड तथा अंत मुक्त अनुस्वार। इसका नाद व संधिरूप उच्चारण करना यही गणेश विद्या है, जिसे गणपति जानते हैं।
३. ध्वनि सूत्रों को देने वाले भगवाने शिव थे। भिन्न-भिन्न वेद की शाखाएं बोलने वालों की मृत्यु के कारण लुप्त होने लगीं। अत: उसे बचाने की प्रार्थना लेकर सनकादि सिद्ध दक्षिण में चिदम्बरम्‌ में भगवान शिव के पास गए। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने अपने स्वर्गिक नृत्य के अन्तराल में अपने डमरू को नौ और पांच अर्थात्‌ चौदह बार बजाया। उसी से १४ ध्वनि सूत्र निकले, जो माहेश्वर सूत्र कहलाये। इसका वर्णन करते हुए कहा गया है-
नृत्तावसाने नटराजराजो
ननाद ढक्कां नवपंचवारम्‌।
उद्धर्तुकाम: सनकादिसिद्धान्‌ एतद्विमर्षे शिवसूत्रजालम्‌।
कौशिक सूत्र-१
चौदह माहेश्वर सूत्रों का उल्लेख पाणिनी निम्न प्रकार से करते हैं। (१) अ इ उ ण्‌ (२) ऋ लृ क्‌ (३) ए ओ ङ्‌ (४) ऐ औ च्‌ (५) ह य व र ट्‌ (६) ल ण्‌ (७) ञ म ङ ण न म्‌ (८) झ भ ञ्‌ (९) ध ठ घ ष्‌ (१०) ज ब ग ड द श्‌ (११) ख फ छ ठ थ च ट त्र य्‌ (१२) क प य्‌ (१३) श ष स र्‌ (१४) ह ल्‌
४. वेदों के स्मरण व उनकी शुद्धता बनी रहे इस हेतु विभिन्न ऋषियों ने जटा, माला, शिखा, रेखा, दण्ड, रथ, ध्वज, तथा घन पाठ की जटिल पद्धतियां विकसित कीं, जो बिना लिखे सुरक्षित रखना कठिन था।
५. महाभारतकार व्यास मुनि जब महाभारत लिखने का विचार कर रहे थे तब उनके सामने समस्या थी कि इसे लिखे कौन, तब उन्होंने उसके समाधान हेतु गणेशजी का स्मरण किया- ‘काव्यस्य लेखनार्थाय गणेशं स्मर्यताम्‌ मुने‘। जब गणेश जी आए तो व्यास मुनि ने उनसे कहा ‘लेखको भारतस्यास्य भव गणनायक:, अर्थात्‌ ‘आप भारत ग्रंथ के लेखक बनें।‘ इसका अर्थ है गणपति उस समय के मूर्धन्य लिपिकार थे।
पाणिनी ने ऋग्वेद्‌ शिक्षा में विवेचन किया है कि वाणी अपने चार पदों में से चौथे पद वैखरी में आती है, तब मनुष्य के शरीर के पंच अंग के सहारे ध्वनि उत्पन्न होती है। इस आधार पर स्वर व व्यजंनों का सम्बंध जिस अंग में आता है उसका वर्गीकरण निम्न प्रकार है-
१. कंठ्य-श्वास कंठ से निकलता है तब तो ध्वनि निकलती है उसके अर्न्तगत निम्न अक्षर आते हैं- अ,आ, क, ख, ग, घ, ङ, ह और विसर्ग।
२. तालव्य- कंठ से थोड़ा ऊपर दांतों के निकट कठोर तालु पर से जब श्वास निकलती है तो वह ध्वनि इ,ई,च,छ,ज,झ,ञ,य और श के द्वारा अभिव्यक्त होती है।
३. मूर्धन्य-जीभ थोड़ी पीछे लेकर कोमल तालु में लगाकर ध्वनि निकालने पर वह निम्न अक्षरों में व्यक्त होती है-ऋ,ट,ठ.ड,द,ण,ष।
४. दंत्य-जीभ दांतों से लगती है तब जिन अक्षरों का उच्चारण होता है वह हैं लृ,ल,त,थ,द,ध,न,स।
५. ओष्ठ्य-दोनों ओठों के सहारे जिन अक्षरों का उच्चारण होता है वह हैं- उ,ऊ,प,फ,ब,भ, म, और व।
इनके अतिरिक्त ए,ऐ,ओ,औ,अं,अ: यह मिश्रित स्वर हैं।
उपर्युक्त ध्वनि शास्त्र के आधार पर लिपि विकसित हुई और काल के प्रवाह में लिपियां बदलती रहीं, पर उनका आधार ध्वनि शास्त्र का मूलभूत सिद्धान्त ही रहा। प्रख्यात पुरातत्वविद्‌ वालावलकर जी ने प्राचीन मुद्राओं में प्राप्त लिपियों का अध्ययन कर प्रमाणित किया कि मूल रूप में माहेश्वरी लिपि थी जो वैदिक लिपि रही। इसी से आगे चलकर व्राह्मी तथा नागरी आदि लिपियां विकसित हुएं। प्रख्यात लिपिकार वाकणकर द्वारा निर्मित तालिका में हम इसे देख सकते हैं।
पुरातत्वीय प्रमाण
लिपि के विकास एवं पुरातत्वीय प्रमाणों पर आधारित वालावलकर एवं वाकणकर के संशोधनों एवं प्रतिपादनों का उल्लेख करते हुए डा. मुरली मनोहर जोशी ने अपने लेख ‘लिपि विधाता गणेश‘ में जो विचार व्यक्त किए हैं वे यह सिद्ध करते हैं कि प्राचीन काल से लिपि की कला का भारत में अस्तित्व था और वह पूर्णतया ध्वनि शास्त्र पर आधारित था, जो विश्व की अन्य लिपियों में नहीं दिखाई देता है। डा. जोशी के शब्दों में-
‘व्रिटिश म्यूजियम में एक सील (क्र. ३१-११-३६६/१०६७-४७३६७-१८८१) रखी है जिसकी अनुकृति नीचे चित्र में प्रदर्शित है। ईसापूर्व छठी शताब्दी की इस सील में बेबीलोनी कीलाक्षर लिपि एवं व्राह्मी लिपि दोनों एक साथ विद्यमान हैं। कीलाक्षरों को तो १९३६ में ही पढ़ लिया गया था किन्तु बीच की एक पंक्ति को कोई अज्ञात लिपि मानकर यों ही छोड़ दिया गया था। पुरालेखविद्‌ वालावलकर ने ही इस अज्ञात लिपि को पढ़कर यूरोपीय विद्वानों की मान्यता कि भारत ने लिपि कहीं बाहर से उधार ली, झुठला दी। उनके अनुसार यह सील अशोक पूर्व माहेश्वरी लिपि में लिखी संस्कृत का साक्ष्य प्रस्तुत करती है। इस पंक्ति का पाठ है- ‘अवखेज्ञराख नु औहर्मनुभ्य: ददतु‘ जो कीलाक्षरों में लिखे अनुबंध की संस्कृत में की गयी संपुष्टि है-इस साक्ष्य से मैक्डोनल एवं ब्यूहलर की स्थापनाएं कि भारत ने ईसा पूर्व पांचवी शताब्दी में लिपि बाहर से उधार ली थी, निस्सार सिद्ध हो जाती है। इसी तरह एक अन्य महत्वपूर्ण साक्ष्य है पेरिस के लूण्रे म्यूजियम में ईसा पूर्व (३०००-२४००) की एक पेलेस्टाइन में उत्खनन के समय सार्गन राजा के यहां से उपलब्ध हुई सील है। इस सील चित्र को देखकर जॉन मार्शल ने कहा था कि इस सील के पुरातत्वीय परिणाम बेहद चौंकाने वाले हैं। इस सील के सिंधु घाटी सील के साथ साम्य ने यूरोपीय विद्वानों की भारतीय लिपि के बाहरी उद्गम सम्बंधी स्थापनाओं पर अनेक प्रश्नचिन्ह लगा दिए। अब कम-से-कम हमारे मनीषियों द्वारा लिपि बाहर से उधार लेने का शोर मचाया जाना तो मंद पड़ ही गया है। लेकिन भारतीय लिपि की प्राचीनता सम्बंधी प्रश्नों पर अभी भी अंग्रेजीदां प्राच्यविद्‌ चुप्पी लगाए हैं।‘
वैदिक ओंकार
‘इसी क्रम में छठी शताब्दी ईसा पूर्व के सोहगरा ताम्र अभिलेख (चित्र-४) पर भी दृष्टिपात करना आवश्यक है। इसकी प्रथम पंक्ति में वही चित्र बना हुआ है जिसे वालावलकर की तालिका में वैदिक ओंकार बताया गया है। चित्र-५,६ व ७ को भी देखिए। ये सब सिक्कों के चित्र हैं, जिनमें वैदिक ओंकार तथा स्वास्तिक जैसे आध्यात्मिक प्रतीक अंकित हैं। प्रश्न यह है कि वैदिक ओंकार की आकृति ऐसी क्यों मान ली जाए। ज्ञानेश्वरी में ओंकार रचना का वर्णन करते हुए लिखा है-
अ- कार चरणयुगल। उ-कार उदर विशाल।
म-कार महामंडल। मस्तका-कारे॥११॥
हे तिन्ही एकवटले। तेच शब्दव्रह्म कवत्तल।
ते मियां गुरुकृपा नमिले। आदि बीज ॥२०॥
‘शब्द व्रह्म या एकाक्षर व्रह्म, प्रण की आकृति का ज्ञानेश्वरी में किया गया वर्णन महत्व का है। वर्तमान देवनागरी में लिखे जाने वाले ॐ से इस वर्णन का मेल स्पष्ट नहीं होता। किन्तु वालावलकर के वैदिक ओंकार से अवश्य इसका साम्य है। यदि माहेश्वरी सूत्रों के अर्धेंदु सिद्धांत पर गौर किया जाए तो यह गुत्थी सुलझ जाती है। दाएं चित्र देखिए-सबसे नीचे दो अर्धेंदु हैं जो ‘अ‘ के प्रतीक हैं; उसके ऊपर फिर एक अर्धेंदु खण्ड है जो ‘उ‘ को व्यक्त करता है, सबसे ऊपर एक वृत्त एवं अर्धेंदु बिंदु है जो ‘म‘ को प्रदर्शित करता है। इस प्रकार ज्ञानेश्वरी का ओंकार, गीता एवं उपनिषदों का एकाक्षर व्रह्म या प्रणव जो भी कहिए; वह माहेश्वरी सूत्रों के अर्धेंदु सिद्धांत के अनुसार निश्चित आकारों को, जो निश्चित ध्वनियों के प्रतीक हैं, जिन्हें क्रमानुसार जोड़ने से बनी एक निश्चित आकृति है। देवनागरी के ॐ में भी यही सिद्धांत परिलक्षित होता है। यदि वैदिक ओंकार को ऊपर चित्र की भांति नब्बे अंश से घड़ी की सुई की दिशा में घुमा दें, देवनागरी आकृति से अदभुत साम्य हो जाता है। एक दृष्टि से वैदिक ओंकार के देवनागरी ॐ में रूपांतरण तक की यात्रा भारतीय लिपि के विकास की कहानी है। इसे ऋग्वेद से लेकर पद्मपुराण तक खोजा जा सकता है।

यदि पृथ्वी पर ऐसा कोई देश है जहाँ अति प्राचीन मानव सभ्यता विकसित थी तो निसंदेह वह भारत ही है -

यदि पृथ्वी पर ऐसा कोई देश है जहाँ अति प्राचीन मानव सभ्यता विकसित थी तो निसंदेह वह भारत ही है -  पृथ्वी पर ऐसा  


  1-Albert Einstein (1879 -1955)
जब मैंने भगवद गीता पढ़ी तब मुझे ईश्वर द्वारा इस स्रष्टि की रचना करने का ओचित्य स्पष्ट हुआ ।
हम भारत के बहुत ऋणी हैं, जिसने हमें गिनती सिखाई, जिसके बिना कोई भी सार्थक वैज्ञानिक खोज संभव नहीं हो पाती।
2-यदि एक हजार सूर्य की चमक आसमान में फट पडे तो वह शक्ति सर्वशक्तिमान ईश्वर की महिमा की तरह होगा. . . . अब मैं दुनिया का विध्वंसक मौत बन गया हूँ ।
आधुनिक परमाणु विज्ञानी रोबर्ट ओपेन हैमेर ने अपने सफल परमाणु प्रयोग से उत्पन्न महाउर्जा को व्यक्त करने के लिए भगवद गीता का उपरोक्त वाक्य उद्धृत किया ।
वेदों को ग्रहण कर पाना इस सदी का भूतपूर्व सभी सदियों से सबसे बड़ा सौभाग्य है।
रोबर्ट ओपेन हैमेर गीता , महाभारत, वेदों तथा उपनिषदों के बड़े प्रशंसक थे :
3-Victor Cousin, French Philosopher (1792-1867)
जब हम भारत के कव्यात्मक तथा दार्शनिक विलक्षण ग्रन्थ ध्यान से पढ़ते है , हम वहां अनंत सत्य पाते है , वे सत्य गहन व् गंभीर है । और दूसरी ओर यूरोपीय प्रतिभा कभी कभी अधम निष्कर्षों पर पहुँच का रुक गई है । इन दोनों इतना अधिक वैषम्य है की हम पूर्व के दर्शन के सामने विनत होने को बाध्य होते है और मानव जाती के इस पालने में उद्धार्तम दर्शन की स्वाभाविक भूमि के दर्शन करते है ।
4-Hu Shih, former Ambassador of China to USA (1891-1962):
भारत ने २ ०शताब्दियों से चीन में एक भी सैनिक भेजे बिना सास्कृतिक रूप से विजय प्राप्त की और प्रभुत्व सत्ता प्राप्त की/ 
5-Dr. Arnold Joseph Toynbee, British Historian (1889-1975)
यह स्पस्ट हो चूका है की जो सिलसिला पाश्चात्य सस्कृति धारण किये आरंभ होता है उसे मानवीय सभ्यता के पतन से बचने हेतु भारतीय दर्शनशास्त्र की और उन्मुख होना ही होगा . इस प्रकार भारतीय दर्शनशास्त्र ही मानवीय जाति का एक मात्र उद्धारक है ।
6.Will Durant, American historian, (1885-1981)
भारत हमारी मातृभूमि थी , और संस्कृत यूरोप की भाषाओं की माँ थी, वह हमारे दर्शन की माँ थी, माँ, अरबों के माध्यम से, बहुत हमारे गणित के, माँ, महात्मा बुद्ध के माध्यम से, ईसाई धर्म में निहित आदर्शों की मां , ग्राम समुदाय के माध्यम से, स्वशासन और लोकतंत्र की. कई मायनों में भारत भूमि हम सब की मां है.
“शायद विजय, अहंकार और लूट के लिए बदले में, भारत हमें सहनशीलता और नम्रता परिपक्व मन की, अर्जनशील आत्मा की शांत , समझ आत्मा की शांति, और एक एकीकृत, सभी जीवित चीजों के लिए एक प्यार सिखाता रहेगा . ”
7.Sir William Jones, Jurist, (1746-1794)
संस्कृत भाषा ग्रीक भाषा से कहीं अधिक उत्तम , लेटिन से कहीं अधिक प्रचुर तथा किसी भी अन्य भाषा से कहीं अधिक परिष्कृत है ..
8.Ralph Waldo Emerson, Philosopher (1803-1882)
मैं भगवत गीता का अत्यंत ऋणी हूँ। यह पहला ग्रन्थ है जिसे पढ़कर मुझे लगा की किसी विराट शक्ति से हमारा संवाद हो रहा है।
9.Arthur Schopenhauer, German Philosopher (1788-1860)
विश्व भर में ऐसा कोई अध्ययन नहीं है जो उपनिषदों जितना उपकारी और उद्दत हो। यही मेरे जीवन को शांति देता रहा है, और वही मृत्यु में भी शांति देगा।
यह दुनिया की सबसे पुरस्कृत तथा मनुष्य को ऊपर उठाने के लिए है जो केवल इसी के द्वारा संभव है ।
मुझे लगता है कि संस्कृत साहित्य के प्रभाव से ही पंद्रहवीं शताब्दी में ग्रीक साहित्य का पुनरुद्धार हुआ था
10.Henry David Thoreau, American Philosopher (1817-1862)
प्रातः काल मैं अपनी बुद्धिमत्ता को अपूर्व और ब्रह्माण्डव्यापी गीता के तत्वज्ञान से स्नान करता हूँ, जिसकी तुलना में हमारा आधुनिक विश्व और उसका साहित्य अत्यंत क्षुद्र और तुच्छ जान पड़ता है।
जब कभी में वेदों के किसी भाग का अध्ययन करता हु तो मुझे ऐसा महसूस होता है मानो किसी पारलोकिक प्रकाश ने मुझे प्रबुद्ध कर दिया हो । वेदों के महान शिक्षण में सांप्रदायिकता का कोई स्थान नहीं है
यह विभिन्न उम्र, जलवायु, और देशों के लिए महान ज्ञान का उपयुक्त मार्ग है ।
11.Mark Twain, American Author (1835-1920)
मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान और सृजनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है।
12.Professor Max Muller, (1823-1900)
यदि में पूरी दुनिया की और यह जानने के उद्देश्य से देखूं जो देश के सबसे बड़े पैमाने पर धन, ताकत तथा प्रकृति प्रदत सुन्दरता के साथ संपन्न हो अर्थात धरती पर स्वर्ग की तरह ही हो ।
तो मैं भारत का नाम लूँगा
यदि मुझसे कोई पूछे की किस आकाश के तले मानव मन अपने अनमोल उपहारों समेत पूर्णतया विकसित हुआ है, जहां जीवन की जटिल समस्याओं का गहन विश्लेषण हुआ और समाधान भी प्रस्तुत किया गया, जो उसके भी प्रसंशा का पात्र हुआ जिन्होंने प्लेटो और कांट का अध्ययन किया।
तो मैं भारत का नाम लूँगा
और यदि में स्वयं से ही ये पूछूँ जो ज्ञान हमें अधिक व्यापक, हमारे भीतर के जीवन को और अधिक व्यापक बनाने के क्रम में एक अधिक सही मायने में मानव जीवन के सर्वाधिक वांछित है
तो मैं भारत का नाम लूँगा ।
13.The Encyclopaedia Britannica says:
यदि पृथ्वी पर ऐसा कोई देश है जहाँ अति प्राचीन मानव सभ्यता विकसित थी तो निसंदेह वह भारत ही है ।
14.George Harrison, Beatles (1943 – 2001)
प्रत्येक मानव जाती के लिए एक महत्वपूर्ण खोज यह जानना है की में यहाँ क्यू हूँ , कोन हूँ, कहाँ से आया हूँ , कहाँ जा रहा हूँ .
मेरे लिए तो यह सब जानना बाकि सभी कार्यों से अधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।
यहां हर कोई एक भौतिक स्तर पर कम्पायमान है, जो कहीं नहीं है वो भारत के लोक अध्यात्म के माध्यम से जान चुके है ।
15.Lin Yutang, Chinese writer, (1895-1976)
भारत साहित्य तथा धर्म के क्षेत्र में चीन का तथा त्रिकोणमिति, द्विघात समीकरण, व्याकरण, स्वर – विज्ञान, अरेबियन नाइट्स, पशु दंतकथाएं, शतरंज के रूप में अच्छी तरह से दर्शन के रूप में विश्व का गुरु था ।
“शतरंज की खोज भारत में ही हुई थी जिसका मूल चौसर था”
16.Aldous Huxley, English novelist (1894-1963)
गीता एक अत्यंत सुन्दर और संभवतः एकमात्र सच्चा दार्शनिक ग्रन्थ है जो केवल भारतियों के लिए नही अपितु समग्र मानवता के लिए है ।
17.Dalai Lama, (b-1935)
हिन्दू तथा बोद्ध , दोनों ही एक माँ की संतान है ।
“Hindus and Buddhists, we are two sons of the same mother.“
18.John Archibald Wheeler , Theoretical Physicist, who coined “Black Hole” (b-1911)
में सोचता हु की कदाचित कोई ये पता लगा पाए की भारतियों की गहरी सोच व् ज्ञान किसी प्रकार ग्रीस तथा ग्रीस से किस प्रकार हम तो पहुंचा ।
19.Guy Sorman, author of “Genius of India”:
यूरोप का लोकिक विचार व् ज्ञान भारत के ज्ञान के आगे फीका पड़ गया ।
बाइबिल, समय को मापने के लिए मापदंड बन गया था तब भारतीय ज्ञान विज्ञानं ने बताया यह दुनिया बाइबिल के बताये समय से कहीं अधिक प्राचीन है ।
तथा ऐसा भी लगता है मानो भारतीय ज्ञान विज्ञानं डार्विन के विकासवाद के सिद्धांतों तथा अन्य खगोल भौतिकी से भी कहीं अधिक उन्नत है ।
20.H.G. Wells, Sociologist, and Historian and Author of “Time Machine” and “War of the Worlds” (1866-1946)
भारत का इतिहास कई सदियों से किसी भी अन्य इतिहास से अधिक प्रसन्न ,सुरक्षित और अधिक सुन्दर स्वप्न की तरह है ।
वे एक ध्यान और शांतिपूर्ण चरित्र का निर्माण करते है जो भारत को छोड़कर कहीं अन्य पाया जाना संभव नही ।
21.Jean-Sylvain Bailly, French Astronomer, (1736-1793)
हिन्दुओं द्वारा लगभग ४ ५ ० ० वर्षों पूर्व खोजी गई ग्रहों की गति आज के समय में खोजी गई गति से एक मिनट भी ऊपर निचे नही होती ।
हिन्दुओं का खगोल विज्ञान अब तक का प्राचीनतम है । जिसमें से मिस्र, ग्रीक, रोमन और यहूदियों ने भी ज्ञान प्राप्त किया है ।
22.George Bernard Shaw, Irish dramatist, literary critic, socialist spokesman (1856-1950)
भारतीय जीवन शैली हमें जीवन के प्राकृतिक तथा सही मार्ग से अवगत करवाती है । जबकि हम अप्राकृतिकता रूपी अज्ञानता के अवरणों में ढके रहते है ।
भारत के मुख पर वे कोमल भाव रहते है जिन्हें स्वयं ‘रचयिता’ ने बनाया है ।

रविवार, 10 मई 2015

भारतीय पुराणों -में समय की सापेक्षता


आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को तो हम सभी जानते है । आइंस्टीन ने अपने सिद्धांत में दिक् व काल की सापेक्षता प्रतिपादित की। उसने कहा, विभिन्न ग्रहों पर समय की अवधारणा भिन्न-भिन्न होती है। काल का सम्बन्ध ग्रहों की गति से रहता है। इस प्रकार अलग-अलग ग्रहों पर समय का माप भिन्न रहता है। समय छोटा-बड़ा रहता है।

उदाहरण के लिए यदि दो जुडुवां भाइयों मे से एक को पृथ्वी पर ही रखा जाये तथा दुसरे को किसी अन्य गृह पर भेज दिया जाये और कुछ वर्षों पश्चात लाया जाये तो दोनों भाइयों की आयु में अंतर होगा।

आयु का अंतर इस बात पर निर्भर करेगा कि बालक को जिस गृह पर भेजा गया उस गृह की सूर्य से दुरी तथा गति , पृथ्वी की सूर्य से दुरी तथा गति से कितनी अधिक अथवा कम है ।

एक और उदाहरण के अनुसार चलती रेलगाड़ी में रखी घडी उसी रेल में बैठे व्यक्ति के लिए सामान रूप से चलती है क्योकि दोनों रेल के साथ एक ही गति से गतिमान है परन्तु वही घडी रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए धीमे चल रही होगी । कुछ सेकंडों को अंतर होगा । यदि रेल की गति और बढाई जाये तो समय का अंतर बढेगा और यदि रेल को प्रकाश की गति (299792.458 किमी प्रति सेकंड) से दोड़ाया जाये (जोकि संभव नही) तो रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए घडी पूर्णतया रुक जाएगी ।

इसकी जानकारी के संकेत हमारे ग्रंथों में मिलते हैं।

श्रीमद भागवत पुराण में कथा आती है कि रैवतक राजा की पुत्री रेवती बहुत लम्बी थी, अत: उसके अनुकूल वर नहीं मिलता था। इसके समाधान हेतु राजा योग बल से अपनी पुत्री को लेकर ब्राहृलोक गये। वे जब वहां पहुंचे तब वहां गंधर्वगान चल रहा था। अत: वे कुछ क्षण रुके।

जब गान पूरा हुआ तो ब्रह्मा ने राजा को देखा और पूछा कैसे आना हुआ? राजा ने कहा मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने पैदा किया है या नहीं?

ब्रह्मा जोर से हंसे और कहा,- जितनी देर तुमने यहां गान सुना, उतने समय में पृथ्वी पर 27 चर्तुयुगी {1 चर्तुयुगी = 4 युग (सत्य,द्वापर,त्रेता,कलि ) = 1 महायुग } बीत चुकी हैं और 28 वां द्वापर समाप्त होने वाला है। तुम वहां जाओ और कृष्ण के भाई बलराम से इसका विवाह कर देना।
अब पृथ्वी लोक पर तुम्हे तुम्हारे सगे सम्बन्धी, तुम्हारा राजपाट तथा वैसी भोगोलिक स्थतियां भी नही मिलेंगी जो तुम छोड़ कर आये हो |

साथ ही उन्होंने कहा कि यह अच्छा हुआ कि रेवती को तुम अपने साथ लेकर आये। इस कारण इसकी आयु नहीं बढ़ी। अन्यथा लौटने के पश्चात तुम इसे भी जीवित नही पाते |

अब यदि एक घड़ी भी देर कि तो सीधे कलयुग (द्वापर के पश्चात कलयुग ) में जा गिरोगे |

इससे यह भी स्पष्ट है की निश्चय ही ब्रह्मलोक कदाचित हमारी आकाशगंगा से भी कहीं अधिक दूर है

यह कथा पृथ्वी से ब्राहृलोक तक विशिष्ट गति से जाने पर समय के अंतर को बताती है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी कहा कि यदि एक व्यक्ति प्रकाश की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान में बैठकर जाए तो उसके शरीर के अंदर परिवर्तन की प्रक्रिया प्राय: स्तब्ध हो जायेगी।

यदि एक दस वर्ष का व्यक्ति ऐसे यान में बैठकर देवयानी आकाशगंगा (Andromeida Galaz) की ओर जाकर वापस आये तो उसकी उमर में केवल 56 वर्ष बढ़ेंगे किन्तु उस अवधि में पृथ्वी पर 40 लाख वर्ष बीत गये होंगे।

काल के मापन की सूक्ष्मतम और महत्तम इकाई के वर्णन को पढ़कर दुनिया का प्रसिद्ध ब्राह्माण्ड विज्ञानी Carl Sagan अपनी पुस्तक Cosmos में लिखता है, -

"विश्व में एक मात्र हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म है, जो इस विश्वास को समर्पित है कि ब्राह्माण्ड सृजन और विनाश का चक्र सतत चल रहा है। तथा यही एक धर्म है जिसमें काल के सूक्ष्मतम नाप परमाणु से लेकर दीर्घतम माप ब्राह्म दिन और रात की गणना की गई, जो 8 अरब 64 करोड़ वर्ष तक बैठती है तथा जो आश्चर्यजनक रूप से हमारी आधुनिक गणनाओं से मेल खाती है।"


उदाहरण के लिए यदि दो जुडुवां भाइयों मे से एक को पृथ्वी पर ही रखा जाये तथा दुसरे को किसी अन्य गृह पर भेज दिया जाये और कुछ वर्षों पश्चात लाया जाये तो दोनों भाइयों की आयु में अंतर होगा।

आयु का अंतर इस बात पर निर्भर करेगा कि बालक को जिस गृह पर भेजा गया उस गृह की सूर्य से दुरी तथा गति , पृथ्वी की सूर्य से दुरी तथा गति से कितनी अधिक अथवा कम है ।

एक और उदाहरण के अनुसार चलती रेलगाड़ी में रखी घडी उसी रेल में बैठे व्यक्ति के लिए सामान रूप से चलती है क्योकि दोनों रेल के साथ एक ही गति से गतिमान है परन्तु वही घडी रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए धीमे चल रही होगी । कुछ सेकंडों को अंतर होगा । यदि रेल की गति और बढाई जाये तो समय का अंतर बढेगा और यदि रेल को प्रकाश की गति (299792.458 किमी प्रति सेकंड) से दोड़ाया जाये (जोकि संभव नही) तो रेल से बाहर खड़े व्यक्ति के लिए घडी पूर्णतया रुक जाएगी ।

इसकी जानकारी के संकेत हमारे ग्रंथों में मिलते हैं।

श्रीमद भागवत पुराण में कथा आती है कि रैवतक राजा की पुत्री रेवती बहुत लम्बी थी, अत: उसके अनुकूल वर नहीं मिलता था। इसके समाधान हेतु राजा योग बल से अपनी पुत्री को लेकर ब्राहृलोक गये। वे जब वहां पहुंचे तब वहां गंधर्वगान चल रहा था। अत: वे कुछ क्षण रुके।

जब गान पूरा हुआ तो ब्रह्मा ने राजा को देखा और पूछा कैसे आना हुआ? राजा ने कहा मेरी पुत्री के लिए किसी वर को आपने पैदा किया है या नहीं?

ब्रह्मा जोर से हंसे और कहा,- जितनी देर तुमने यहां गान सुना, उतने समय में पृथ्वी पर 27 चर्तुयुगी {1 चर्तुयुगी = 4 युग (सत्य,द्वापर,त्रेता,कलि ) = 1 महायुग } बीत चुकी हैं और 28 वां द्वापर समाप्त होने वाला है। तुम वहां जाओ और कृष्ण के भाई बलराम से इसका विवाह कर देना।
अब पृथ्वी लोक पर तुम्हे तुम्हारे सगे सम्बन्धी, तुम्हारा राजपाट तथा वैसी भोगोलिक स्थतियां भी नही मिलेंगी जो तुम छोड़ कर आये हो |

साथ ही उन्होंने कहा कि यह अच्छा हुआ कि रेवती को तुम अपने साथ लेकर आये। इस कारण इसकी आयु नहीं बढ़ी। अन्यथा लौटने के पश्चात तुम इसे भी जीवित नही पाते |

अब यदि एक घड़ी भी देर कि तो सीधे कलयुग (द्वापर के पश्चात कलयुग ) में जा गिरोगे |

इससे यह भी स्पष्ट है की निश्चय ही ब्रह्मलोक कदाचित हमारी आकाशगंगा से भी कहीं अधिक दूर है

यह कथा पृथ्वी से ब्राहृलोक तक विशिष्ट गति से जाने पर समय के अंतर को बताती है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी कहा कि यदि एक व्यक्ति प्रकाश की गति से कुछ कम गति से चलने वाले यान में बैठकर जाए तो उसके शरीर के अंदर परिवर्तन की प्रक्रिया प्राय: स्तब्ध हो जायेगी।

यदि एक दस वर्ष का व्यक्ति ऐसे यान में बैठकर देवयानी आकाशगंगा (Andromeida Galaz) की ओर जाकर वापस आये तो उसकी उमर में केवल 56 वर्ष बढ़ेंगे किन्तु उस अवधि में पृथ्वी पर 40 लाख वर्ष बीत गये होंगे।

काल के मापन की सूक्ष्मतम और महत्तम इकाई के वर्णन को पढ़कर दुनिया का प्रसिद्ध ब्राह्माण्ड विज्ञानी Carl Sagan अपनी पुस्तक Cosmos में लिखता है, -

"विश्व में एक मात्र हिन्दू धर्म ही ऐसा धर्म है, जो इस विश्वास को समर्पित है कि ब्राह्माण्ड सृजन और विनाश का चक्र सतत चल रहा है। तथा यही एक धर्म है जिसमें काल के सूक्ष्मतम नाप परमाणु से लेकर दीर्घतम माप ब्राह्म दिन और रात की गणना की गई, जो 8 अरब 64 करोड़ वर्ष तक बैठती है तथा जो आश्चर्यजनक रूप से हमारी आधुनिक गणनाओं से मेल खाती है।"