सोमवार, 13 मई 2019

मानव जीवन में संस्कारों का महत्व

संस्कार की चर्चा तो सभी करते व सुनते हैं परन्तु संस्कार का शब्दार्थ व भावार्थ क्या है? संस्कार किसी अपूर्ण, संस्काररहित या संस्कारहीन वस्तु या मनुष्य को संस्कारित कर उसका इच्छित लाभ लेने के लिए गुणवर्धन या अधिकतम मूल्यवर्धन value addition करना है। यह गुणवर्धन व मूल्यवर्धन भौतिक वस्तुओं का किया जाये तो वैल्यू एडीसन कहलाता है और यदि मनुष्य का करते हैं तो इसे ही संस्कार कह कर पुकारते हैं। मनुष्य जन्म के समय शिशु शारीरिक बल व ज्ञान से रहित होता है। पहला कार्य तो अच्छी प्रकार से उसका पालन-पोषण द्वारा शारीरिक उन्नति करना होता है। इसे शिशु का शारीरिक संस्कार कह सकते हें। यह कार्य माता के द्वारा मुख्य रूप से होता है जिसमें पिता व परिवार के अन्य लोग भी सहायक होते हैं। बच्चा माता का दुग्ध पीकर, कुछ माह पश्चात स्वास्थ्यय व पुष्टिवर्धक भोजन कर तथा व्यायाम आदि के द्वारा शारीरिक विकास व वृद्धि को प्राप्त होता है। मनुष्य की पहली उन्नति शरीर की उन्नति होती है और इसके लिए जो कुछ भी किया जाता है वह भी संस्कार ही हैं। शारीरिक उन्नति के पश्चात सन्तान के लिए सुशिक्षा की आवश्यकता है। शिक्षा रहित सन्तान शूद्र, पशु वा ज्ञानहीन कहलाती है और शिक्षा प्राप्त कर उसकी संज्ञा द्विज अर्थात ज्ञानवान होती है और वह अपने प्रारब्ध व इस जन्म के आचार्यों द्वारा प्रदत्त ज्ञान से ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य बनकर देश व समाज की उन्नति में योगदान करता है। इस प्रकार से संस्कार की यह परिभाषा सामने आती है कि जीवन की उन्नति जो कि धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति का साधन है, के लिए जो-जो शिक्षा, वेदाध्ययन आदि कार्य व क्रियाकलाप किये जाते हैं वह संस्कार कहलाते हैं। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वरीय ज्ञान हैं जो कि सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को वैदिक भाषा संस्कृत के ज्ञान सहित दिये गये थे। इन वेदों में ईश्वर ने वह ज्ञान मनुष्यों तक पहुंचाया जो आज 1,96,08,53,114 वर्ष बाद भी सुलभ है। यह वेदों का ज्ञान ही मनुष्य की समग्र उन्नति का आधार है। इस ज्ञान को माता-पिता और आचार्यों से पढ़कर मनुष्य की समग्र शारीरिक, बौद्धिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति होती है। उदाहरण के रूप में हम आदि पुरूष ब्रह्माजी, महर्षि मनु, पतजंलि, कपिल, कणाद, गौतम, व्यास, जैमिनी, राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द ,डॉ केशव बलिराम हेडगेवार,माधवराव सदाशिव राव गोलवरकर आदि ऐतिहासिक महापुरूषों को ले सकते हैं जिनकी शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक उन्नति का आधार वेद था। वेदाध्ययन यद्यपि वेदारम्भ और उपनयन इन दो संस्कारों के अन्तर्गत आता है परन्तु इन दोनों संस्कारों का महत्व अन्यतम है। नित्य आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय का भी जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। वेदों के आधार पर जिन सोलह संस्कारों का विधान है वह क्रमशः गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोनयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह-गृहस्थ, वानप्रस्थ-संन्यास व अन्त्येष्टि संस्कार हैं। इन संस्कारों को करने से मनुष्य की आत्मा सुभूषित, संस्कारित एवं ज्ञानवान होती है और जीवन के चार पुरूषार्थों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकती है। इनके साथ नित्य प्रति पंचमहायज्ञों यथा सन्ध्योपासना, दैनिक अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ का करना अनिवार्य है। वैदिक धर्म और संस्कृति में वेदों व वैदिक साहित्य का अध्ययन किए हुए युवक व युवति का विवाह योग्य सन्तान और देश के श्रेष्ठ नागरिकों की उत्पत्ति के लिए होता है। संसार के शिक्षित और अशिक्षित सभी माता-पिता अपनी सन्तानों को स्वस्थ, दीर्घायु, बलवान, ईश्वरभक्त, धर्मात्मा, मातृ-पितृ-आचार्य-भक्त, विद्यावान, सदाचारी, तेजस्वी, यशस्वी, वर्चस्वी, सुखी, समृद्ध, दानी, देशभक्त आदि बनाना चाहते हैं। इसकी पूर्ति केवल वैदिक धर्म के ज्ञान व तदनुसार आचरण से ही सम्भव है। आज की स्कूली शिक्षा में वह सभी गुण एक साथ मिलना असम्भव है जिससे ऐसे योग्य देशभक्त नागरिक उत्पन्न हो सकें। केवल वैदिक शिक्षा से ही इन सब गुणों का एक व्यक्ति में होना सम्भव है जिसके लिए अनुकुल सामाजिक वातावरण भी आवश्यक है। वेदों के ज्ञान के कारण ही हमारे देश में ऋषि, महर्षि, योगी, सन्त आदि हुए हैं। अन्य देशों में यह सब गुण किसी एक व्यक्ति में पूरी सृष्टि के इतिहास में नहीं देखे गये हैं।
प्रत्येक समाज में एक लम्बे अनुभव से निकलते-निकलते कुछ विशेषताएं बन जाती हैं उनकों हम संस्कृति की विशेषता कहते हैं। हमारे यहां पर कहा गया कि यह समाज में संस्कारयुक्त व्यवहार से संस्कृति की विशेषता उत्पन्न होती है तो यह संस्कार क्या है? अब कोई न कोई क्रिया होगी जब उसका कोई न कोई अवशेष रह जाएगा तो वह संस्कार है। हथोड़ा मारा हमने तो एक निशान छूट गया, जो निशान छूट गया वह संस्कार है। संस्कार के संदर्भ में भी हमारे पूर्वजों ने सोचा और उन्होंने उसकी एक व्याख्या की। इसकी मीमांसा में हमारे ऋषि कहते हैं कि विशेष गुणवृद्धि होना ही संस्कार है और शंकराचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्र के भाष्य के अंदर उसको और विस्तृत रूप से व्याख्यायित किया। उन्होंने ‘’दोषापनयेन गुणाधान संस्कार:’’ के रूप में संस्कार शब्द की परिभाषा की। हमारे जीवन में जो दोष हैं, कमियाँ हैं, उनको निकाले और जो सद्गुण हैं उनको ग्रहण करें, यह जो निकालने और ग्रहण करने की प्रक्रिया है, यही संस्कार है। इसी संस्कार के माध्यम से धीरे-धीरे जीवन के व्यवहार की विशेषताएं प्रकट होंगी और इसलिए जब हम भारतीय संस्कृति की विशेषताओं के सम्बन्ध में जो भी विचार प्रस्तुत करते हैं वे विशेषताएं एक दिन में पैदा नहीं हुई हैं।

भारतीय जीवन में संस्कार की बहुत सी बातें हैं जैसे ‘मातृवत् परदारेषु’, अर्थात् पराई स्त्री को माँ के समान समझो। एक संस्कार है ‘परद्रव्याणि लोष्ठवत्’ अर्थात् दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझो। एक अन्य संस्कार है ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ सभी को अपने जैसा या अपनी आत्मा से जुड़ा समझो। हम देखते हैं कि हमारी इन विशेषताओं ने भारतीय समाज-जीवन को एक ऊँचाई प्रदान की। आजकल का जीवन भले ही कुछ अलग हो गया है परन्तु लगभग 1000 साल पहले की हमारी संस्कृति का भारत में आनेवाले ज्यादातर विदेशी समाज के लेखकों ने जो वर्णन किया है, अगर आज आप पढे़गे तो पाएंगे कि यह सारी विशेषताएं उन्होंने जीती-जागते रूप में हमारे समाज में उन्होंने देखीं। हमारे समाज में विद्यमान संस्कारों- यथा अतिथि-सत्कार, दया , करूणा, न्याय, नैतिकता आदि का रूप जैसा उन्होंने देखा, वैसा वर्णन किया। अतः यदि हम पुनः वैसा ही समाज जीवन बनाना चाहते हैं तो समाज में संस्कृति बोध आवश्यक है।
यह जो संस्कृति बोध है समाज के अंदर उसे पीढी दर पीढी स्थानांतरित अथवा हस्तांतरित करने का माध्यम अनेक प्रकार की कलाएं है। जिस प्रकार सामान्यतः अक्षरज्ञान की जो शिक्षा होती है, उसका सम्बंध बुद्धि से होता है, कला का संबंध हृदय से होता है। इस प्रकार बुद्धि और हृदय का परिष्कार करने के लिए हमारे यहां पर साहित्य है, संगीत है, कला है इनको जीवन में बहुत महत्व दिया गया है। संस्कृत में एक सुभाषित है- ‘‘साहित्य, संगीत, कला विहिनः साक्षात पशु पुच्छ विषाणहीनः’’ अर्थात् जिस मनुष्य के जीवन में न तो साहित्य है न कला है न संगीत है न उसकी रूचि है वह मनुष्य तो है परन्तु कैसा है वह बिना पूंछ के पशु जैसा है। जब साहित्य कहेंगे तो उसमें कथा है, कहानी है, कविता है, उपन्यास है, अर्थात् कई तरह से विभिन्न रूपों में विचार और भावना की अभिव्यक्ति हुई है। जब हम संगीत कहेंगे तो स्वरों की दुनिया है वह मुंह से गाए हुए रागों की भी एक दुनिया है और यन्त्रों के माध्यम से स्वरों के जो स्पन्दन निकलते हैं उसकी भी एक दुनिया है उनके अपने-अपने अन्तर हैं।

आजकल इस पर बहुत विश्लेषण किया ज़ा रहा है कि यह जो भारतीय शास्त्रीय संगीत है वह सुकून देता है, मनुष्य तन्मय हो जाता है, तनाव निकल जाता है, क्यों है ऐसा? यह जो भारतीय संगीत है, राग है उसके स्पन्दन ऐसे हैं कि वह दिमाग में तनाव लाने वाली जो बातें है उन सबको हटा देता है। धीरे-धीरे आदमी तन्मय हो जाता है। 1935 में इटली में संगीत प्रेस वार्ता हुई थी मुसोलिनी उस समय तानाशाह था, भारतीय संगीतज्ञ पंडित ओंकारनाथ ठाकुर उससे मिले। उस समय मुसोलिनी को बताया गया भारतीय संगीत में सुबह का राग है, शाम का राग है, दुःख का राग है, सुख का राग है, तो मुसोलिनी ने कहा मुझे पता नहीं है, पर मुझे कुछ दिन से नींद नहीं आ रही है। क्या आपके पास कोई ऐसा राग है जिसे सुनकर मुझे नींद आ जाए। कोशिश करता हूँ यह कहकर ठाकुर जी ने बजाना चालू किया और 15-20 मिनट के अंदर मुसोलिनी गहरी नींद में सो गया। दो दिन तक सोता रहा। तो संगीत की भी एक दुनिया है – दो पेड़ लगा करके अरविन्द आश्रम में प्रयोग किया गया कि एक के सामने माइकल जैक्सन और मैडोना वगैरह का पॉप संगीत बजाया गया और दूसरी तरफ भारतीय संगीत। प्रभाव देखिये कि जिसके सामने भारतीय संगीत बजा उस पेड़ के पत्ते बड़े अच्छे थे और जहाँ पॉप म्यूजिक बज रहा था उसके पत्ते बहुत कटे-फटे और खंडित। लम्बे समय में पॉप संगीत मनुष्य के व्यक्तित्व को आंतरिक रूप से खण्डित कर देता है। इसलिए पॉप म्यूजिक के जितने पॉप स्टार वर्ल्ड में हुए वे तनावग्रस्त हुए, जेलों में गए या आत्महत्याएं की।

इसी प्रकार रंगो और रेखाओं की भी एक दुनिया है – चित्रकला है, मूर्तिकला है, कार्टून बनते हैं, आजकल चित्ररेखाएं है और चित्र बहुत कुछ कह देता है। अगर हम मूर्तियों का निरीक्षण करेंगे तो हमें जीवन के सभी रंग वहां दिखाई देंगे। जैसे रंगों और रेखाओं की एक दुनिया है, वैसे ही भाव और भंगिमाओं की भी एक दुनिया है। दृष्टि इधर की उधर होने से अर्थ बदल जाता है। दृष्टि या नजर अर्थात् देखना। आंख से देखते हैं। तो आंख इधर-उधर घुमाते हैं, लेकिन आंख घुमाने के पीछे भी मनोविज्ञान है। कोण बदलने के साथ भाव और अर्थ बदल जाता है। एक उर्दू की पंक्ति थी, ‘‘नजर ऊंची की तो दुआ बन गई, नजर नीची की तो हया बन गई।’’ कुछ लज्जास्पद काम कर दिया तो नजर नीची हो जाती है। ‘‘ नजर तिरछी की तो अदा बन गई, नजर फेर ली तो कजा बन गई।’’ एक ही दृष्टि है, कोण बदल गया तो अर्थ बदल गया, भाव बदल गया। इसीलिए कहते हैं कि भाव भंगिमाओं की भी एक दुनिया है। भरतमुनि का नाट्य शास्त्र पूरा का पूरा इसी विषय पर केन्द्रित है। यह संसार भी एक नाटक है, हमारे यहाँ सारे ब्रह्मांड के अंदर शिव का तांडव नृत्य उसका प्रतीक है। नटराज का चित्र सारे ब्रह्माण्ड के सृजन और विध्वंस की कहानी है, उसके अंदर ही ध्वंस भी है और संतुलन भी। कला इसकी वाहक होती है और इन सबका अधिष्ठान अध्यात्म है। उसकी बहुत व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है।

हमारे पूर्वजों ने कही कि मूलतः एक ही तत्व है उसे सर्व खलिव्दम् ब्रह्म कहा होगा ईशावास्यमिदं सर्वं कहा होगा और उस एक ही मूल तत्व से विविध तत्व बने और इसलिए विविधता में एकता है, इन विविध तत्वों के आपस में सम्बन्ध हैं और इस आधार पर आपसी सम्बन्धों की परिवार संकल्पना के रूप में परिभाषित किया। इस नाते मनुष्य का शरीर भी इन्द्रियां, मन, बुद्धि यह भी एक परिवार है। फिर अपना घर भी परिवार है। कुल भी परिवार है बाकि सब परिवार है। परिवार की संकल्पना से जुड़ना और तब फिर परस्पर सहयोग और परस्पर आश्रितता की भावना स्वभाविक रूप से उसमें से निकलकर आती है। करूणा और संवेदना के बिना यह जुड़ाव संभव नहीं हो पाता है और इसलिए कहा गया है कि हमारी शिक्षाओं का, हमारी कलाओं का उद्देश्य मानव-हृदय को उदात्त बनाना और उसमे करुणा का सृजन करना है। उसकी संवेदना, उसकी जो संवेदनशीलता है, उसकी व्याप्ति बढ़ती चली जाए और इस नाते से यह जो हमारा एक आधारभूत अधिष्ठान है, जो अधिष्ठान संपूर्ण विश्व को एक परस्पर सहयोगी रूप प्रदान करने के अंदर एक आधार देता है, उसका बोध होना। उस बोध के प्रकाश में दीर्घकाल के प्रवाह में बनी हुई संस्कृति की विशेषताओं को शिक्षा और कला के विविध कार्यक्रमों के माध्यम से आने वाली पीढियों के अंदर संक्रमित करते हुए उन सबके मन के अंदर संस्कृति बोध को जाग्रत करना, यह हम सबका उद्देश्य होना चाहिए।

सन् 1947 में भारत विदेशी दासता से स्वतन्त्र हुआ। आवश्यकता थी कि देश में सर्वत्र, आध्यात्मिक जीवन में सत्य की प्रतिष्ठा हो, परन्तु इसके विपरीत धर्मनिरपेक्षता का सिद्धान्त बना जहां ईश्वर के सत्य ज्ञान वेदों  को प्रतिष्ठा नहीं मिली। सभी मतों की पूजा पद्धतियां अलग-अलग हैं। इन्हें संस्कारों व कुसंस्कारों का मिश्रण कहा जा सकता है। अलग-अलग उपासना पद्धतियों से परिणाम भी निश्चित रूप से अलग-अलग ही होंगे। सभी उपासना पद्धतियों से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होना असम्भव है। वह केवल वैदिक उपासना पद्धति से ही सम्भव है। अतः संस्कारों को केन्द्र में रखते हुए अपने जीवन को सत्य को ग्रहण करने वाला, असत्य को निरन्तर व हर क्षण छोड़ने के लिए तत्पर रहने वाला, सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य व्यवहार करने वाला बनाना होगा। यह संस्कारों से ही सम्भव है और यह संस्कार मर्यादा पुरूषोत्तम राम व योगश्वर कृष्ण सहित हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों एवं संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार जी में रहें हैं जिनका हमें अनुकरण करना है। इन महापुरूषों के जीवन चरित का अध्ययन कर उनके गुणों को आत्मसात कर सुसंस्कारित हुआ जा सकता है।   निष्कर्ष यह है कि संस्काररहित मनुष्य पशु के समान होता है। अतः प्रत्येक मनुष्य को संस्कार विधि का गहन अध्ययन कर संस्कारों की विधि और उनके महत्व को जानना व समझना चाहिये। वेदाध्ययन कर वेदानुसार आचरण करना चाहिये। शारीरिक उन्नति पर ध्यान देना चाहिये। शुद्ध शाकाहारी व पुष्टिकारक भोजन करते हुए संयमपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिये।
किसी भी समाज को चिरस्थायी प्रगत और उन्नत बनाने के लिए कोई न कोई व्यवस्था देनी ही पडती है और संसार के किसी भी मानवीय समाज में इस विषय पर भारत से ज्यादा चिंतन नहीं हुआ है। कोई भी समाज तभी महान बनता है जब उसके अवयव श्रेष्ठ हों। उन घटकों को श्रेष्ठ बनाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि उनमें दया, करुणा, आर्जव, मार्दव, सरलता, शील, प्रतिभा, न्याय, ज्ञान, परोपकार, सहिष्णुता, प्रीति, रचनाधर्मिता, सहकार, प्रकृति प्रेम, राष्ट्रप्रेम एवं अपने महापुरुषों आदि तत्वों के प्रति अगाध श्रद्धा हो।

मनुष्य में इन्हीं सारे सद्गुणों के आधार पर जो समाज बनता है वह चिरस्थायी होता है। यह एक महत्वपूर्ण चिन्तनीय विषय हजारों साल पहले से मानव के सम्मुख था कि आखिर किस विधि से सारे उत्तम गुणों का आह्वान एक-एक व्यक्ति में किया जाए कि यह समाज राष्ट्र और विश्व महान बन सके।भारतीय ऋषियों ने इस पर गहन चिन्तन मनन किया। आयुर्वेद के वन्दनीय पुरुष आचार्य चरक कहते हैं कि-

संस्कारोहि गुणान्तरा धानमुच्चते

अर्थात् यह असर अलग है। मनुष्य के दुर्गुणों को निकाल कर उसमें सद्गुण आरोपित करने की प्रक्रिया का नाम संस्कार है। वास्तव में संस्कार मानव जीवन को परिष्कृत करने वाली एक आध्यात्मिक विधा है। संस्कारों से सम्पन्न होने वाला मानव सुसंस्कृत, चरित्रवान, सदाचारी और प्रभुपरायण हो सकता है अन्यथा कुसंस्कार जन्य चारित्रिक पतन ही मनुष्य और समाज को विनाश की ओर ले जाता है। वही संस्कार युक्त होने पर सबका लौकिक और पारलौकिक अभ्युदय सहज सिद्ध हो जाता है। संस्कार सदाचरण और शाश्त्रीय आचार के घटक होते हैं। संस्कार, सद्विचार और सदाचार के नियामक होते हैं। इन्हीं तीनों की सुसम्पéता से मानव जीवन को अभिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति होती है। भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्व सर्वोपरि माना गया है, इसी कारण गर्भाधान से मृत्यु पर्यन्त मनुष्य पर सांस्कारिक प्रयोग चलते ही रहते हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति सदाचार से अनुप्रमाणित रही है।

प्राकृतिक पदार्थ भी जब बिना सुसंस्कृत किए प्रयोग के योग्य नहीं बन पाते हैं तो मानव के लिए संस्कार कितना आवश्यक है यह समझ लेना चाहिए। जब तक मानव बीज रूप में है तभी से उसके दोषों का अहरण नहीं कर लिया जाता तब तक वह व्यक्ति आर्य नहीं बन पाता है और वह मानव जीवन से राष्ट्रीय जीवन में कहीं भी हव्य कव्य देने का अधिकारी भी नहीं बन पाता। मानव जीवन को पवित्र चमत्कारपूर्ण एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए संस्कार अत्यावश्यक है। गहरे अर्थों में संस्कार धर्म और नीति समवेत हो जाती है। इसीलिए संस्कार की ठीक-ठाक परिभाषा कर पाना सम्भव ही नहीं है। संस्कार शब्दातीत हो जाते हैं क्योंकि वहां व्यक्ति क्रिया और परिणाम में केवल परिणाम ही बच जाता है। व्यक्ति के अहंकारों का क्रिया में लोप हो जाता है। एक तरह से व्यक्ति मिट ही जाता है तो जब व्यक्ति मिट ही जाता है तो परिभाषा कौन करेगा अब वह व्यक्ति समष्टि बन जाता है। वह निज के सुख-दुख हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश के बारे में काम चलाऊ से ज्यादा विचार ही नहीं करता। उसका तो आनन्द परहित परोपकार और समाज एवं सृष्टि को संवारने में ही निहित हो जाता है और संस्कारों की उपर्युक्त क्रिया ही चरित्र, सदाचार, शील, संयम, नियम, ईश्वर प्रणिधान स्वाध्याय, तप, तितिक्षा, उपरति इत्यादि के रूप में फलित होते हैं।

संस्कारों से अनुप्राणित व्यक्ति की सत्य की खोज एक सनातन यात्रा बन जाती है। और वह प्राप्त सत्य केवल एक भीतरी आनन्द देता है जिसकी ऊर्जा से आपलावित होकर व्यक्ति समाज और मानवता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है। उस सत्य की व्याख्या नहीं की जा सकती। उसे केवल अनुभव किया जा सकता है क्योंकि वो शब्द छोटे पड़ जाते और जो अनुभूति है वो इतनी विराट है कि अनादि, अनन्त। इस अनन्त को सात मानव शब्दों में कैसे पकड स़कता है, वहां तो हर कुछ अद्वैत हो जाता है। ‘नारद भक्ति सूत्र’ में आता है कि सत्य एक है वह अद्वैत है। साधारण ढंग से देखने पर दर्शक, दृश्य और द्रष्टा या ज्ञाता ज्ञेय और ज्ञान तीन दिखाई देते हैं। थोड़ी और गहराई में दो ही बच जाते हैं, लेकिन सच तो यह है कि वह केवल अद्वैत है। वहां ज्ञाता और ज्ञेय दोनों मिट जाते हैं केवल ज्ञान बच जाता है।

तस्या ज्ञान मेव साधनमृत्यके

(नारद भक्ति सूत्र 28)

यह संस्कार वही ज्ञान है, इस त्रिभंग से मुक्त होना ही संस्कार का परिणाम है। ऊपरी तौर पर भी हिन्दू संस्कृति ने इसकी बड़ी सुन्दर व्यवस्था रखी ही है। कुम्भ मेले में अमृत रसपान हेतु लाखों-लाखों लोग लाखों वर्षों से एकत्र होते रहते हैं। वहां भी वे दृश्य गंगा और जमुना में स्नान करते हैं, लेकिन अनुभूति तो अदृश्य सरस्वती की होती है। यह सरस्वती ही ज्ञान है यही संस्कार का सुफल है यह सरस्वती दृश्यमान नहीं है। अनुभूति जन्य है इस सरस्वती को व्याख्यायित करना संभव ही नहीं है केवल कुछ लक्षणों को पकडा़ जा सकता है। यह अद्भुत प्रेम है, जिसमें प्रेमी और प्रेयसी दोनों डूब जाते हैं। केवल प्रेम बच जाता है। यह प्रेम केवल करने से समझ में आता है। शब्दों से इसका स्वाद नहीं मिल पाएगा।

प्रेमैव कार्यम् प्रेमैव कार्यम्।।

यही संस्कार है। यूं तो प्रत्येक समाज अपने घटकों को सुसंस्कारित करने का प्रयास करता है। उसके लिए आदर्श भी रखता है। संस्कार की परिधि इतनी व्यापक है कि उसमें श्वास प्रश्वास से लेकर प्रत्येक कर्म समाविष्ट है।

ब्राह्सस्कारसंसकृतः ऋषीणां समानतां सामान्यतां

समानलोकतां सामयोज्यतां गच्छति।

दैवेनोरेण संस्कारेणानुसंस्कृतो देवानां समानतां

समानलोकतां सायोज्यतां च गच्छति

(हारित संहिता)

संस्कारों से संस्कृत व्यक्ति ऋषियों के समान पूज्य तथा ऋषि तुल्य हो जाता है। वह ऋषि लोक में निवास करता है तथा ऋषियों के समान शरीर प्राप्त करता है और पुनः अग्निष्टोमादि दैवसंस्कारों से अनुसंस्कृत होकर वह देवताओं के समान पूज्य एवं देव तुल्य हो जाता है। वह देवलोक में निवास करता है और देवताओं के समान शरीर को प्राप्त करता है।

अव्याकृत किन्तु अनुभव गम्य संस्कारों के फूल जिसके हृदय में खिले हैं और जिसकी पवित्र सुगन्ध वातावरण को मुग्धकारी बना देती है उन ऋषियों ने लोक कल्याण हेतु संस्कारों के लक्षण कहने का प्रयास किया है। यद्यपि वे अनुभोक्ता अपने आनन्द को शब्दों में परिभाषित तो नहीं कर सकते फिर भी कुछ संकेत उन्होंने उसी दिशा में दिए हैं जिससेप्राणी मात्र उसी का अनुसरण कर अपना लौकिक और पारलौकिक उéयन कर सके।

संस्कृतस्य हि दान्तस्य नियतस्य यतात्मनः।

प्राज्ञस्यानन्तरा सिद्धिरिहलोके परत च।।

(महाभारत)

जिसके वैदिक संस्कार विधिवत् सम्पन्न  हुए हैं, जो नियमपूर्वक रहकर मन औैर इन्द्रियों पर विजय पा चुका है, उस विज्ञ पुरुष को इहलोक और परलोक में कहीं भी सिद्धि प्राप्त होते देर नहीं लगती।

अंगिरा ऋषि कहते हैं कि-

चित्रकर्म यथाडेनेकैरंगैसन्मील्यते शनैः।

ब्राह्ण्यमपि तद्वास्थात्संस्कारैर्विधिपूर्व कैः।।

जिसके प्रकार किसी चित्र में विविध रंगों के योग से धीरे-धीरे निखार लाया जाता है, उसी प्रकार विधिपूर्वक संस्कारों के सम्पादन से ब्रह्ण्यता प्राप्त होती है।

मानवीय संस्कारों के महत्वपूर्ण तत्वों की ओर इंगित करते हुए भगवान वेद व्यास कहते हैं-

न चात्मानं प्रशंसेद्वा परनिन्दां च वर्जयेत्।

वेदनिन्दां देवनिन्दां प्रयन विवर्जयेत्।।

(पुराण)

अपनी प्रशंसा न करे तथा दूसरे की निन्दा का त्याग कर दे। वेदनिन्दा और देवनिन्दा का यत्नपूर्वक त्याग करे।

संस्कारों से ही आचरण पवित्र होते हैं।

आचारः परमो धर्मः सर्वेषामिति निश्चयः

हीनाचारी पवित्रात्मा प्रेत्य चेह विनश्यति।।

सभी शास्त्रों का यह निश्चित मत है कि आचार ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। आचारहीन पुरुष यदि पवित्रात्मा भी हो तो उसका परलोक और इहलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं।

सत्यं शिवं सुन्दरम् में मनोयोग ही सृष्टि का प्रयोजन है और इस परम प्राप्ति का एकमेव कारण संस्कार है।

जिस प्रकार के सद्गुणों की अपेक्षा माता-पिता अपनी संतान से करते हैं, उनका बीजारोपण वास्तव में बाल्यकाल में होता है। श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों एवं श्रेष्ठ आचरण से युक्त अच्छा साहित्य पढने का स्वभाव एवं अच्छी संगति से अच्छे एवं श्रेष्ठ संस्कारों का बीजारोपण संभव होता है। मनसंहिता में अभिवादन शीलता एवं बड़ों का सम्मान करने का प्रत्यक्ष प्रभाव बतलाया गया है। इससे मनुष्य को जीवन में आयु, यश, बुद्धि एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति का साधन बतलाया गया है। देवता, ब्राह्मïण, गुरुजन एवं विद्वान का पूजन एवं सम्मान सात्विक तप कहलाता है। 

‘‘प्रात:काल उठि के रघुनाथा। मात-पिता गुर नाविंह माथा।’’

भगवान श्री राम अपने बाल्यकाल में प्रात:काल उठ कर अपने माता-पिता और गुरु को प्रणाम करके अपनी दिनचर्या का प्रारंभ करते हैं। 

हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु जी से द्वेष रखता था परन्तु उसके पुत्र प्रह्लाद का लालन-पालन नारद ऋषि के आश्रम में हुआ, जिससे वह भगवान श्री हरि जी का परमभक्त बना। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन और विरोचन पुत्र बलि के बारे में कौन नहीं जानता जिसके द्वार पर स्वयं भगवान नारायण वामन रूप में पधारे और उसका कल्याण किया। प्रह्लाद और बलि चाहे दैत्यकुल में उत्पन्न हुए लेकिन उन जैसी प्रभु भक्ति का उदाहरण अन्यत्र मिलना संभव नहीं। 

रावण ब्रह्मा ऋषि पुलस्त्य का पौत्र था। पुलस्त्य ब्रह्मा जी के मानस पुत्र माने गए हैं परंतु बाल्यकाल में रावण को राक्षस कुल से उसकी माता कैकसी द्वारा ऐसे संस्कार दिए गए कि ब्राह्माण कुल में पैदा होकर भी रावण को दैत्यकुल से संबोधित किया जाने लगा। 

 कुरुवंश से कौरव व पांडव उत्पन्न हुए। कौरवों के नाश के लिए उत्तरदायी दुर्योधन के मन में बाल्यकाल से ही उसके मामा शकुनि ने पांडवों के प्रति इस प्रकार के ईष्र्या के बीज बोए वह जीवन भर अपनी इस विषैली मानसिकता से मुक्ति न पा सका। जिस प्रकार शुद्ध वायु के लिए वृक्षों के पास जाना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार मन, बुद्धि की शुद्धि के लिए धर्म ग्रंथों का स्वाध्याय आवश्यक है। 

 मार्कंडेय मुनि द्वारा सभी ज्ञानीजनों को प्रणाम करने के व्रत के कारण उन्होंने अपनी 16 वर्ष की अल्पायु को चिरंजीवी होने में परिवर्तित किया। बाल्यकाल का समय जीवन का सर्वाधिक उपयुक्त समय है, सद्गुण रूपी बीजों के अंकुरित होने का इस समय में सही मार्गदर्शन का प्राप्त होना आवश्यक है। भगवान श्री राम ने अपना बाल्यकाल गुरुकुल में महर्षि वशिष्ठ जी के आश्रम में तथा भगवान श्री कृष्ण ने सांदीपनी ऋषि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर गुरु भक्ति एवं सेवा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। 
आज समाज में जो कुछ भी सुखद अथवा असुखद घटित होता है, इन सब में मानवीय संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। आधुनिकता के इस युग में हम चाहे कितना भी आगे क्यों न निकल जाएं लेकिन परिवार, समाज तथा राष्ट्र को सदैव शुभ संस्कारों की आवश्यकता पड़ती रहेगी ताकि मानव से मानव के जुड़ाव की प्रक्रिया सतत् निरंतर चलती रहे। संतान की माता-पिता के प्रति, एक नागरिक के राष्ट्र के प्रति कर्तव्य परायणता, नि:स्वार्थ भाव से समाज के कल्याण हेतु तत्पर रहना, ये सब सत्य मानवीय समाज के निर्माण की प्रक्रिया में अत्यधिक महत्वपूर्ण अंग हैं। युक्त आहार, विहार, कर्मों में यथा योग्य चेष्टा तथा युक्त निंद्रा जीवन को योगपूर्ण बनाते हैं। मनुष्य का आचार, विचार, आहार, व्यवहार संतुलित बनाने में ज्ञान पथ प्रदर्शक होता है। 
बाल्यावस्था में अबोध होने के कारण युवावस्था में व्यस्तता के कारण और बुढ़ापे में शारीरिक क्षमता के शिथिल होने के कारण हम जीवन भर इन सद्गुणों के ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। वास्तव में श्रेष्ठ मानवीय आचरण का ज्ञान शिक्षा का अंग है। अगर बाल्यावस्था में इन सद्गुण रूपी संस्कारों से बच्चों को युक्त कर दिया जाए तो यह सब श्रेष्ठ मानवीय समाज का निर्माण करने हेतु अवश्य ही सामथ्र्यवान बनेंगे।